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चतुर्दशः
पूर्व तु पुण्योपचितान्मनुष्यान्स्वयं धनः श्रीमुखताः श्रयन्ते । वियोगधीवुःखविपत्तिशोकाः श्रयन्ति मानकृतः पुमांस्तु (?) ॥ ७ ॥ कुतो गतो व्याधगणान्बभज्ज' कुतो गतः श्रेष्ठिसुतत्वमाप । कुतो गतः सार्थपतिर्बभूव कुतो गतः सर्वजनैः प्रकथ्यः ॥ ८८॥ कश्चिद्भटः सार्थपतिः सदारः पुत्राश्च पौत्रा बहुबन्धुवर्गः । पुरोपवासव्रतपुण्य पुण्यं सहार्जयित्वा तदिहागताः स्युः ॥ ८९ ॥ रूपं वपुः शौर्यमथापि शीलं शुचित्वमारोग्यमुदारबुद्धिम् । जगज्जनाक्षिप्रियतापटुत्वं कश्चिद्भटः केन सुलब्धवान्स्यात् ॥ ९॥ पुरा त्वनेनाध्युषितं पुरं यत्तस्मिन्मनुष्या न च भाग्यवन्तः। यस्मिन्पुरेऽनेन वसन्ति सार्ध ते भाग्यवन्तस्त्विति केचिदूचुः॥ ९१ ॥
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जिन पुरुषार्थो पुरुषोंने अपने पूर्व जन्मोंसे परिपूर्ण पुण्य कमाया है उनको धन, शोभा-शक्ति और सुख सामग्री स्वयं ही घेर लेते हैं। इसके विपरीत जो प्रमादी लोग अकरणीय कार्यों में अपनी शक्ति नष्ट करते हैं उनको वियोग की आशंका, वियोग दुःख, विपत्ति, शोक आदि सतत कष्ट होते हैं ।। ८७॥
गुणग्राही ललितपुर ___ 'कब कहाँसे जाकर इसने पुलिन्दोंकी विशाल सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया, किस पुण्य प्रकृतिके प्रतापसे सागरवृद्धि को यह पुत्रके समान प्रिय हो गया, किम प्रकार अनायास ही इस नगरके श्रेणियों और गणोंका प्रधान सार्थपति हो गया है तथा कोई नहीं जानता है कि कैसे तथा क्यों इसीकी चर्चा सबके मुखोंपर है ।। ८८ ।।
स्पष्ट है कि परम यशस्वी कश्चिद्भट तथा शीलवती परम अनुरक्त पत्नी, गुणी पुत्र-पौत्र, स्नेहशील तथा अनुरक्त बन्धु बान्धवों सहित हमारे सार्थपति सागरवृद्धि , आदि व्यक्ति अपने पूर्व जन्मोंमें उपवास, व्रत, आदि करनेसे उत्पन्न पवित्रपुण्य को बड़ी मात्रा में संचित करके ही इस संसार ( जन्म ) में आये हैं ।। ८९ ।।
कश्चिद्भटने ऐसे कौनसे शुभ कर्म किये होंगे जिनके परिपाक होनेसे उसे इस भवमें सर्वाग सौन्दर्य, अविकल तथा स्वस्थ शरीर, अद्वितीय पराक्रम, शारीरिक तथा मानसिक शुद्धि, रोगहीनता, सर्वतोमुखी बुद्धि, संसार भरके लोगोंकी आँखों में समा जाने वाली सुभगता, प्रत्येक कार्यमें पटुता तथा विकार गाधक सुविधाएँ होनेपर भी अडिंगशील प्राप्त हुए हैं ।। ९ ।।
पण्यात्माका प्रेम पहिले यह जिस नगरमें निवास करता था वहाँके लोगों का भाग्य अनुकूल नहीं था, नहीं तो इससे वियोग क्यों होता? १.[धनस्त्रीसुखदाः]। २. म गणाद्वभञ्ज । ३. [°जन्य ] ।
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