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बरान चरितम्
चतुर्विशः
नरकेष्वतितीव्रवेदनेषु ह्यमनोज्ञेष्वसुखावहेषु जीवाः । अकृतार्थतया तमोधृतेषु परिपत्यानुभवन्ति घोरदुःखम् ॥ ६५ ॥ वघवन्धपरिश्रमाद्यनर्थान्बहला भीमतमास्तिरश्चजीवाः । जनमार्णवमप्लवा भ्रमन्तः स्वकृताङ्गः फलतः समश्नुवन्ति ॥६६॥ दुरितान्मनुजा गुणैविहीनाः परभूत्यत्वमुपेत्य दीनभावाः । अवश्यामि भयादिता विषण्णा मरणं यान्त्यथवार्थिनो वराकाः॥ ६७॥ परिवारधनाप्रमेयलक्ष्मीमतिविज्ञानयशःप्रकाशवंशा द्युतिकोतिबलप्रतापभोगाः सुकृतादेव हि नणां भवन्ति सर्वे ।। ६८ ॥
सर्गः
ऐसे ही फलोंको पाता है जिनका निश्चित फल सुखभोग ही नहीं होता है अपितु उससे आगेके लिए शुभ कर्माका बन्ध भी । होता है ॥ ६४ ॥
पहिले कह चुके हैं कि नरकोंमें अत्यन्त तीव्र वेदना होती है, इतना ही नहीं वे नरक अत्यन्त वीभत्स और अरुचिकर होते हैं । वहाँकी प्रत्येक परिस्थिति दुःख ही उत्पन्न करती है तथा वे सबके सब गाढ़ अन्धकारसे परिपूर्ण हैं । वहाँ पर उन्हीं जीवोंका जन्म होता है जिन्होंने अपने पूर्व जन्ममें करणीय कार्योंको उपेक्षा की है। वे वहाँपर विविध प्रकारके घोर दुःखोंको सतत सहते हैं ।। ६५ ॥
- जन्म मरणरूपी विशाल पारावारको पार करनेमें असमर्थ जीव संसारचक्रमें घूमते रहते हैं। तथा जब उनके पूर्वकृत कुकर्मोका फल उदयमें आता है तो वे तिर्यञ्च गतिमें उत्पन्न होते हैं जहाँ पर असमयमें ही अकारण वध, बिना अपराधके बन्धन, प्राण लेनेवाला परिश्रम, तथा इसी प्रकारके एक दो नहीं अनेक अनर्थोको वे झेलते हैं जो कि उनके पूर्वकृत कर्माके ही फल होते हैं ।। ६६ ॥
जो मनुष्य, मनुष्योचित गुणोंसे सर्वथा होन हैं तथा जिनमें नैसर्गिक तेज और गौरव नहीं है वे पुरुष पूर्वकृत पापोंके उदय अवस्थामें आनेपर ऐसी दुरवस्थाको प्राप्त होते हैं कि उन्हें अपनी रोटीके लिए भी दसरोंकी सेवा करनो या उनकी ओर देखना पड़ता है। उनपर सदा ही भयका भूत सवार रहता है, जब देखो तब ही खेद खिन्न दिखते हैं, उनका जीवन निन्दनीय हो जाता है। अथवा बिचारे भिक्षुक होकर असमयमें ही काल कवलित हो जाते हैं ॥ ६७ ॥
पुण्यका फल स्वस्थ, स्नेही तथा सम्पन्न परिवार, विविध वैभव, असंख्य लक्ष्मी, यथार्थग्राही मति, विशेष गम्भीर ज्ञान, निर्मल यश तथा जगत् विख्यात वंश पूर्वकृत पुण्योंके ही फल हैं। जिन कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तियोंने पर्याप्त पुण्यका संचय किया है उन्हींको मन१. [ स्वकृतानां ]। २. [ अपयान्ति ]। ३. म भवार्षिता।
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