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बराल
चतुर्विशः
चरितम्
सर्गः
नृपती हिरवेन्द्रमस्तकस्थानुदितादित्यसमानसरिकरीटान् । शरविन्दुनिभातपत्रचिह्नान् प्रचलच्चामरवीज्यमानलीलान् ॥ ६९॥ प्रविराजितरत्नबद्धहारान् बहुभृत्यैः परियाचितान्समीक्ष्य । स्वपुराजितसत्क्रियाफलेन प्रचलन्तीति बुधाश्च वर्णयन्ति ॥ ७० ॥ यदतुल्यपराक्रमातिसत्त्वान् कुलरूपद्युतिकान्तिभिः समानान् । बहुकोटिनरानथैक एव मनु पूर्वाजितपुण्यतः प्रत्रास्ति ॥ ७१ ॥ इह जन्मनि यः शुभक्रियार्थः स परत्राभ्युपगम्य नाकलोकम् । अणिमादिगुणैर्गुणप्रधानैः सुचिरं क्रीडति निर्गमप्रबन्धैः ॥ ७२ ॥
मोहक कान्ति, प्रभावक कीर्ति, अजेय बल, परजनोंका पराभवकारक प्रताप, दुःख संसर्गहीन चिरकाल स्थायी यथेच्छ भोग, आदि D सब ही सुख प्राप्त होते है ।। ६८ ॥
विवेकी पुरुष जिस समय राजा रूपमें मदोन्मत्त हाथियोंपर आरूढ़ होकर चलते हैं, पूर्वाचलपर उदित हुए सूर्यके उद्योतके सदृश प्रकाशमान उत्तम मुकुटोंकी ज्योतिसे शोभित होते हैं, शरद् पूर्णिमाकी रात्रिमें उदित पूर्णचन्द्रकी धवल शीतल कान्तिके तुल्य छत्रोंकी शोभासे प्रभावित होते हैं, लीलापूर्वक ढुरते हुए सुन्दर चंचल चमरोंके माहात्म्य अनुभव करते हैं ।। ६९ ।।
इन राजाओंके गले में पड़े मणिमय विशाल हारोंको पहिनते हैं जिनकी छटा चारों ओर फैली रहती है, उनके साथ अनेक आज्ञाकारी सेवक रहते हैं जो पुनः पुनः उनसे करणीय काम पूंछते हैं। यह सब देखकर विद्वान् लोग यही कहते हैं कि यह सब विभव तथा भोग पूर्वभवमें संचित किये गये अपने पूर्वपुण्यके फलसे ही मिलते हैं, अन्यथा नहीं ॥ ७० ॥
प्रत्येक राज्यमें अनेक अनुपम पराक्रमो तथा लोकोत्तर बलशालो, पुरुष नहीं होते हैं, अपितु जहाँ तक उच्चवंश, शारीरिक सौन्दर्य, तेज, मनमोहक कान्ति, आदि गुणोंका सम्बन्ध है ये लोग राजाके ही समान होते हैं। तो भी इस प्रकारके सुयोग्य एक | दो ही पुरुषोंको नहीं अपितु करोड़ों पुरुषोंपर जो राजा नामधारी अकेला जन्तु ही शासन करता है, इसमें उसकी कोई असाधारणता साधक नहीं है, अपितु उसका पूर्वोपार्जित पुण्य ही परम प्रेरक है ।। ७१ ॥
जो पुरुष इस जन्ममें अपने तथा पराये कल्याणके साधक कार्योंमें लीन रहता है, वह यहाँको आयुके समाप्त होते ही दूसरे जन्ममें स्वर्गलोकको शोभा बढ़ाता है। वहाँ पहुँच कर वह गुणोंके राजा अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियोंको प्राप्त करता है। तथा इनके प्रतापसे प्राप्त अनेक निरन्तर क्रीड़ाओंको करता हुआ चिरकाल तक सुखभोग करता है ।। ७२ ॥ १. क नृपति [ नृपतीन् । २. क सत्तिरीटान् । ३. क सर्वान् । ४. क एवन्ननु, [ एवं ननु ] |
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