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________________ वराङ्ग चरितम् सकला नयभङ्गमार्गनीता यदनेकान्तविशेषितास्त एव । महतां वचनानुसारनीता विदुषां श्रेयसि हेतवो भवन्ति ॥ ६१ ॥ स्वपुराकृतकर्मपाशबद्धान्नरकादींश्च गतीरनन्तकालम् । प्रतिसंसरति स्वयं स जीवो न च मुक्ति लभते विनष्टचेताः ।। ६२ ।। बलवांस्तु यदा क्रियागुणैः स्यान्न च मुक्तिलभते स कल्मषात्मा । स यदा बलवान्गुणी गुणेभ्यः प्रविमुच्याशु नियाति मुक्तिमात्मा ॥ ६३ ॥ [... Jain Education International ********** शुभकर्मयुतः शुभानुबन्धं फलमश्नाति परत्र सोऽन्तरात्मा ॥ ६४ ॥ किन्तु नैगम आदि सातों नयों तथा स्याद्-अस्ति, आदि सातों भंगों की अपेक्षासे विचारे गये पदार्थोंका जो अनेक दृष्टियों युक्त ज्ञान होता है उसके साथ अनेकान्त ( अनेकधर्मंता ) द्योतक स्यात् शब्द लगा रहता है; वही ज्ञान पूर्णं होता है । पदार्थोंका व्यापक ज्ञान प्राप्त करनेके लिए निष्पक्ष विचारकोंने इसी सरणीका आश्रय लिया था। अतएव उस प्रक्रियासे प्राप्त किया गया ज्ञान ही विवेकी पुरुषोंको मोक्षलक्ष्मीके मिलनेमें सहायक होता है ॥ ६१ ॥ संसारबन्ध संसारी जीव अपने पूर्वजन्मोंमें किये गये कर्मोंके फन्दों में जकड़कर बँधे हुए हैं। इसीलिए अनादिकालसे प्रारम्भ करके अनन्तकाल पर्यन्त नरक आदि गतियोंमें घसीटे जाते हैं । संसारचक्रमें पड़ा हुआ जीव अपने आप ही अपने आगे आनेवाले सुखदुःख पूर्ण जन्मोंकी नींव डालता है। वह जितने अधिक चक्कर मारता है उतना अधिक हो उसका चित्त विमूढ़ होता जाता है और मुक्ति उससे दूर भागती है ।। ६२ ।। जिस समय यह आत्मा शुभ-अशुभ क्रियाओं तथा सम, दम आदि गुणोंकी वृद्धिका आधार होता है उस समय भी उसपर चढ़ा हुआ पापों का पर्तं न तो नष्ट ही होता है और न घटता ही है, फलतः वह संसारसे छुटकारा नहीं पाना है । किन्तु जिस समय वह आध्यात्मिक ज्ञान सुख आदि गुणोंके पूर्ण विकासके लिए ही उक्त गुणोंको अपने आपमें पुष्ट करता है, उस समय वह क्षणभर में हो समस्त सांसारिक बन्धनों को तोड़कर फेंक देता है और शीघ्र ही मोक्षमें जा पहुँचता है ।। ६३ ।। जब यह आत्मा शुभ कर्मोंको हो कमाता है तो उसका निश्चित फल यह होता है कि वह अपनी आगामी पर्यायोंमें १. मूल प्रतियोंमें यह श्लोक त्रुटित है । फलतः प्रकरण तथा अन्य सुविधाओंके आधारपर यद्यपि यह पूर्ण किया जा सकता है, पर वह भ्रामक होगा ( अनु० ) । For Private & Personal Use Only Th चतुर्विंश: सर्गः [ ४८२ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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