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________________ बराङ्ग चतुर्विशः चरितम् सर्गः प्रचलोत्थितया दवान्निशम्य परिवाचं प्रपतप्रचारग्नौ । न च क्षरते पयो विषाणादिति दुग्ध्यं मतिगानुपायवत्स्यात् ॥ ५७॥ अवगम्य बुधस्तु देशकालौ शनकैः क्षीरमथाददाति गोभ्यः। मतिमान्कनकं लभेत धातोरनलार्थी लभतेऽग्निमाशु काष्ठात् ॥ ५८॥ अनिलाहतवृद्धमिद्धमग्नि प्रसमीक्ष्येणवाशनरपैति । व्यवसायवतामुपायपूर्वाः सफलास्ते च यथा सुखक्रियार्थाः ॥ ५९॥ विधिवान्नकृतान्तकालदैवग्रहभाग्येश्वरपौरुषस्वभावाः । कथितास्तु नयैकमार्गयुक्त्या न हि निःश्रेयसकारणं भवन्ति ॥ ६॥ PRADELESELEASEARTeamRATORRENT अत्यन्त वेगसे बहती हुई प्रचण्ड पवनके कारण भभको हुई दावाग्निका समाचार पाते ही वह व्यक्ति जिसकी आँखें ।। फूट चुकी हैं उस दिशामें दौड़ता है जो कि बुलानेवालेके विपरीत होतो हैं, फल होता है कि वह बचता नहीं है और आगके मुखमें जा पड़ता है । कौन नहीं जानता है कि गायके सींगसे दूध नहीं निकलता है ? दुध वही व्यक्ति पाता है जो ठीक उपाय (थन को दुहना ) करता है ।। ५७ ॥ बुद्धिमान् व्यक्ति देश तथा काल दोनों को समुचित रूपसे समझ लेता है तब प्रयत्न करता है। गायको देखकर धके लिए उसके स्तनपर हाथ लगाकर धीरे-धीरे दूध दुह लेता है। सोनेको मूलधातुका पता लगाकर ही मतिमान व्यक्ति उससे सोना बनाता है, तथा जिसे अग्निकी आवश्यकता है वह उपयोगी लकड़ोका पता लगाकर उसे रगड़ता है और तुरन्त ही अग्नि पैदा कर लेता है ।। ५८॥ उपायज जिस व्यक्तिकी आँखें ठीक हैं और ज्योति घटी नहीं है वह दूरसे ही देखता है कि प्रभञ्जन (आँधी) के झोकोंसे धोकी गयी अरण्याग्नि बड़े विकराल रूपसे भभक उठी है, तब वह चुपचाप उसकी विपरीत दिशामें खिसक जाता है। तात्पर्य यह कि जो व्यक्ति समुचित साधनोंको जुटाकर प्रयत्न करते हैं वे सर्वत्र सफल ही नहीं होते हैं, अपितु उनकी समस्त प्रवृत्तियाँ इतनी । सरलतासे सफल होती हैं कि वे दुःखका नाम भी नहीं जानते हैं ।। ५९ ॥ नियति, निजाजित कर्म, यमराज, काल, दैव, रवि, चन्द्र, आदि ग्रह, कर्मनिरपेक्ष भाग्य, ईश्वर, पुरुषार्थ, स्वभाव आदि हो संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयके प्रधान प्रेरक हैं ! इस प्रकार जो एक-एकको प्रधानता दी है वह किसी एक नयकी अपेक्षासे कहा है । अतएव एक नयकी अपेक्षासे की गयी वह तत्त्वमीमांसा मोक्षका कारण नहीं होती है ।। ६० ॥ १. क°याददान्निशम्य । २. [प्रपतत्य°]। ३. [ दुह्य मतिमानु°]। ४. [विधिकर्मकृतान्त° ] । [४८१] THEORIA Jain Education intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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