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वराङ्ग चरितम्
सुखदुःख फलात्प्रयत्नतश्च
ननु
गत्यादिविशेषलिङ्गभावात् ।
स न विद्यत इत्यनल्पबुद्धिः कथमात्मानमिहात्मना ब्रवीमि ॥ ५३ ॥ गतयोऽभिहिता न ताश्च शून्याः सुखदुःखानुभवोऽस्ति जीवराशेः " । स च कर्मपथेन नीयमानो मतिमांस्तासु गतीषु बंभ्रमीति ॥ ५४ ॥ अनुपायवती हघुपायपूर्वा व्यवसायस्य गतिद्विधा विभिन्ना । अनुपायवतां न कार्य सिद्धिर्भवतीत्येवमुदाहृतं महद्भिः ॥ ५५ ॥ परिगृह्य नरो धमन्नधातु न सुवर्णं लभते चिरादपीह । परिमन्थ्य महाश्रमेण वह्नि लभते नैव पुमानर्नातिकाष्ठम् ॥ ५६ ॥
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उत्थान -मार्ग
जीव जो कार्य करने की क्षमता है उसे ही व्यक्साय कहते हैं। इस व्यवसायको सफलताके दो मार्ग हैं - एक तो है किसी भी प्रकारका प्रयत्न न करना ( अनुपायवती ) तथा दूसरा है उसके साधक साधनोंको जुटा देना ( उपाय पूर्वक ) संसारमें जो महान आत्मा अपनी साधना में सफल हुए हैं उनका कहना है कि जो लोग स्वतः सामर्थ्यवान होते हुए किसी कार्यकी सफलता के लिए प्रयत्न नहीं करते हैं, वे कभी भी सफल नहीं होते हैं ।। ५५ ।।
जिस मूलधातुमें सोना नहीं है उसीका लेकर यदि कोई मनुष्य अग्नि में डाल देता है और चिरकाल तक ज्वालाको प्रज्वलित रखने के लिए धोंकता रहता है, तो भी उसके हाथ थोड़ा-सा भी सोना नहीं लगता है । इसी प्रकार यदि कोई आग जलानेका इच्छुक ऐसी लकड़ियोंको लेता है जिनसे कभी आग लग ही नहीं सकती है, और उनको काफी देर तक रगड़ता है तो इसका यह मतलब नहीं है कि उसे अपने महाश्रमके फलस्वरूप उन लकड़ियोंसे आग मिल सकेगी ।। ५६ ।।
१. म जीवराशिः । २. [ पुमाननय ]
किन्हीं प्रतिवादियों की बुद्धि तो इतनी अधिक विकसित हो गयी है कि वे आत्माके अस्तित्त्वको ही नहीं मानते हैं। क्योंकि सुख दुःख आदि फलों और प्रयत्न, आदि क्रियाओंके सिवा कोई आत्मा अलग से उन्हें दिखता नहीं है । तथा आत्माका गति, आदिके समान कोई स्पष्ट लिंग भी नहीं मिलता है जिससे कि आत्माकी अभ्रान्तसिद्धि हो सके। इस विचारकसे एक ही बात पूछी है कि वह 'मैं अपने आप हो बोलता हूँ' आदि बातों का अनुभव कैसे करता है ॥ ५३ ॥
केवलज्ञानी आचार्यांने जो जीवकी चार गतियाँ बतलायी हैं वे शून्य नहीं हैं अपितु उनका निश्चित अस्तित्व है। कौन नहीं जानता है कि विविध भागों में विभक्त अनन्त जीवराशिको सुख-दुःख आदि समस्त भावोंका अति स्पष्ट अनुभव होता है । और यह ज्ञान लक्षण युक्त बुद्धिमान जीव ही अशुभकर्मरूपी मार्गके ऊपर चलकर ही उक्त चारों गतियोंमें चक्कर काटता फिरता है ।। ५४ ।।
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चतुर्विंश:
सर्गः
[ ४८० ]
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