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चतुर्विशः
चारतम्
सर्गः
यविहेप्सितमात्मनः प्रदातुं ननु कर्मेति तदाहुराप्तवर्गाः । असतीहेतरच कर्मनाशस्तव भावाफलता कुतोऽस्ति लोके ॥४९॥ असिवद्यदिकोशवच्च लोके पृथगेवात्र न लक्षित: स चात्मा। इति यो विवदेददृष्टतत्वः स च तेन प्रतिभासतोऽन्तरात्मा ॥५०॥ घटपिण्डवदेव जीवराशिः क्रियते चेत्परमेष्ठिनेति यस्य । अनपेक्षिततत्त्वमार्गदृष्टिर्ननु नित्येतरतामुपैति तस्य ॥५१॥ अथ सर्वगतं वदेन्नरो यो न हि गत्यागतिबन्धमोक्षभावः । प्रथमाङ्गलिपर्वरूपमात्रो परमात्मेति वदेच्च यः स मूढः ॥५२॥
कर्मवादका उपक्रम उक्त क्रमसे सब विकल्पोंके सदोष सिद्ध होनेके कारण यदि यही माना जाय कि आत्माको अपने अभिलषित प्रिय पदार्थोंकी प्राप्ति निजी कर्मोंके ही कारण होती है; जैसा कि संसारके पूज्य आप्तोंने भी कहा है, तब भी यही प्रश्न रह जाता है कि इस संसारमें रहते हुए कभी भी ऐसा क्षण नहीं आता है जब कि जीव कर्म न करता हो? तब कौनसे ऐसे कारण हैं जो कि सांसारिक कार्योको फलहीन बनाते हैं ? || ४९ ॥
आत्मा-विचार कोश (म्यान ) में जब तलवार रहती है तो दोनों एकसे मालम देते हैं किन्तु खड्गको बाहर निकालते ही दोनों दोनों अलग-अलग सामने आ जाते हैं। किन्तु आत्मा शरीर से अलग इस रूपमें तो कभी, कहीं देखा नहीं गया है ? इस ढंगसे यदि कोई तत्त्वज्ञान विमुख व्यक्ति शंका करे, तो उसको शंकाका समाधान उक्त शंकासे हो जाता है, क्योंकि इस शंकाके द्वारा अन्तरात्माकी स्पष्ट झलक मिल जाती है ।। ५०॥
यदि कोई तत्त्वोंको जाननेका इच्छुक यह मानता है कि परमात्मा ही संसारको अनन्त जीवराशिको उसी प्रकार बनाता है जिस प्रकार कुम्हार, आदि शिल्पी घड़ा, मृद्-गोला आदि सांसारिक पदार्थोंको बनाते हैं, तो यही कहना होगा कि इस सिद्धान्तको महत्त्व देनेवाला विचारक जान बूझकर तत्त्वदृष्टिको उपेक्षा कर रहा है। क्योंकि उसके मतसे समस्त जीवोंकी द्रव्यदृष्टिसे नित्यता न सिद्ध होकर दूसरी ( अनित्यता) ही परिस्थिति हो जायगी ।। ५१॥
आत्माको संसार भरमें व्यापक माना जायगा तो उसका कहीं से कहीं जाना अथवा रुकना तथा मोक्ष आदि व्यवस्थाएँ सर्वथा असंगत हो जायेंगी । सर्वगत पक्षमें आये दोषोंसे घबराकर यदि अंगुष्ठ बराबर आत्माको मानेंगे तो भी उक्त । दोषोंसे मुक्ति नहीं मिलेगी फलतः इस पक्षके समर्थककी मूर्खता ही सिद्ध होगी ।। ५२ ।। १. [प्रतिभासितो॰] ।
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स्थति हो जाया रहा है।
माना जायगा
जायगी।
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