________________
चरितम
अष्टादशः सर्गः
मन्त्रीश्वरश्रेणिगणप्रधानाः समक्षभूताः परिहृष्टभावाः । त्वयाद्य कश्चिद्भट साधु साधु नामानुरूपं कृतमित्यवोचन् ॥ ११४ ॥ संपूज्य तं सागरवृद्धिमिभ्यं कश्चिद्भटं चाप्रतिमप्रभावम् । गजेन्द्रमारोप्य धृतातपत्रः पुरं विवेशावनिपः सलीलम् ॥ ११५॥ आनन्दभेर्यः पटहा मृदङ्गा वीणाः सवंशाः सह कंसतालैः । जयं नरेन्द्रस्य निवेदनार्थमाशीगिरश्चाप्यधिकं विनेदुः ॥ ११६॥ गृहे गृहे चन्दनधामचित्राः समुच्छिताः पञ्चविधाः पताकाः ।
प्रभजनस्पर्शविवर्तिताना रेजुस्तरङ्गा इव सागरस्य ॥ ११७ ॥ सकता है । हजारों प्रयत्न करके कोई तुम्हारे पराक्रमको कुण्ठित भी नहीं कर सकता है। इस संसारमें तुमसे बढ़कर मेरा बन्धु कोई भी नहीं है तुम्हीं सबसे बड़े हो।' महाराज देवसेन जब यह वचन कह रहे थे उस समय उनका मुख प्रसन्नताके कारण विकसित हो उठा था ।। ११३ ।।
लतितेश्वरके मंत्री, कोषाध्यक्ष, श्रेणियों तथा गणोंके प्रधान, आदि जिन्होंने अपने समक्ष ही कश्चिद्भटका पराक्रम देखा था, और देखकर परम प्रमुदित हा उठे थे, उन सबने भी उसे घेरकर यही कहा था 'हे कश्चिद्भट आज आपने बहुत ही । सुन्दर काम किया है, आप धन्य हैं, आपके कार्य सर्वथा आपके नामके अनुकूल हैं ।। ११४ ।।
महाराजने सेठ सागरवृद्धिका वहीं पर विपुल स्वागत किया था तथा अनुपम प्रभावशाली कश्चिद्भटकी तो पूजा हो की थी इसके उपरान्त उसे हस्तिरत्न पर विराजमान करके उसके शिरके ऊपर राजाओंके उपयुक्त छत्र लगवाया था तथा समस्त ठाट-बाटके साथ उसका राजधानीमें प्रवेश कराया था ।। ११५ ।।
महराज देवसेनकी विजयको घोषित करनेके लिए उनके नगर प्रवेशके अवसरपर पूरे नगरमें आनन्दकी सूचक भेरियाँ, पटह, मृदंग, वीणा, विशेष प्रकारकी बाँसुरी, कांसताल आदि बाजे बज रथे तथा नगरके प्रत्येक कोने में आशिष वचनोंकी ध्वनि सुनायी पड़ती थी ॥ ३१६ ॥
विजयो का नगरप्रवेश नगरके प्रत्येक ग्रहके द्वारपर चन्दनके उत्तम चौक पूरे गये थे, उनकी छतोंपर पांच रंगकी अद्भुत तथा आकर्षक पताकाएं फहरायी गयी थीं। प्रभजनके झकोरे उन्नत पताकाओंके चीनांशुकको जब उड़ाते थे तो समुद्रकी लहरोंकी शोभाको भी परास्त कर देते थे ॥ ११७ ॥
[३५५]
रामन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org