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वराङ्ग चरितम्
अष्टादशः सर्ग:
HEADARPANMARATHARASHPAPEHAR
यतो यतस्त्वप्रतिमल्लनागं स्थलोच्चयेनैव गतिक्रमेण । संचारयामास स जातहर्षस्ततस्ततः शत्रुबलं दधाव ॥ १०९।। अथावशिष्टां रिपुवाहिनीं तां निरुध्य सर्वाश्च कृतानुयात्रान् । स्वपक्षदप्त्यै परपक्षभीत्यै दधौ स शङ्ख बहदभ्रघोषम् ॥ ११०॥ ततोऽरिचक्रं प्रविजित्य धीमान्निदाघमध्याह्नरविप्रकाशम् । उपेत्य राजानमुदारकीति ननाम पादौ कमलावदातौ ॥ १११ ॥ विलोक्य पादावनतं नरेन्द्रः प्रोत्थाप्य नागात्स्वपुरो निवेश्य । प्रसारितेनात्मभुजद्वयेन स हृष्टचेता भृशमालिलिङ्गे ॥११२ ॥ दृष्टं मया पौरुषमेतदार्य तवाद्वितीयं युधि दुःप्रधर्षम् । त्वत्तः परोऽन्यो न च मेऽस्ति बन्धुरित्यब्रवीद्धर्षविबद्धवक्त्रः ॥ ११३ ॥
CARETIREMERELEचामारा
। ही बाल खोलकर झुककर मुख में तृण दबाये खड़े थे तथा शेष कितने ही प्राणोंसे वियुक्त होकर पृथ्वी माताको गोदमें सो रहे थे ॥ १०८ ॥
कश्चिद्भट अपने हाथी अप्रतिमल्लको साधारण सी छलागें लिवाता हुआ जिधर जिधरको बढ़ा देता था, तो वह स्वयं तो उसकी गतिविधिसे प्रसन्न होता था किन्तु शत्रु की सेना उस उस दिशाको छोड़कर भागतो थी ॥ १०९ ।।
बुद्धिमान् तथा रणनीतिमें चतुर कश्चिद्भटने थोड़े ही समय में पूरेके पूरे शत्र के सैन्यको घेरकर अपने वशमें कर लिया था, वह उसका अनुसरण कर रही थी। इस सबसे निवृत्त होकर उसने अपने पक्षको बलिष्ठ बनाने तथा शत्रुपक्षको अत्यन्त भीत कर देनेके लिए ही जोरसे महाशंखको बजवाया था ।। ११० ।।
महा मतिमान कश्चिद्भट समस्त शत्रुओंको पूर्ण पराजित करनेके पश्चात् अपने तेजके कारण मध्यान्हके सूर्यके समान चमक रहा था । युद्धसे अवकाश पाते ही वह महान् यशके स्वामी महराज देवसेनके सामने पहुँचा था और उनके कमलोंके समान शुद्ध तथा मोहक चरणोंमें उसने मस्तक झुका दिया था ।। १११ ।। * महाराज देवसेनने ज्यों ही कश्चिद्भटको पैरोंपर झुकता देखा त्यों ही उसे उठा लिया था। अपने हाथीपर उसे अपने सामने बैठाकर अपने दोनों विशाल बाहुओंको फैला दिया था तथा उनके द्वारा उसे आवेष्टित करके बार बार अपनी छातीसे भ[३५४] लगाया था ॥ ११२ ॥
विजयी कश्चिद्भटका स्वागत हे आर्य ? मैंने अपनी आँखोंसे तुम्हारे उस महा पराक्रम को देखा है, जिसको कोटिका दूसरा इस पृथ्वीपर हो ही नहीं।
AIIMONALIS
Awar
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