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________________ बराङ्ग चरितम् प्रासादगर्भादभिनिस्सृतानि मुखपङ्कजानि । वभुर्भ्रमत्षट् चरणावलीभिः सरोरुहाणि ॥ ११८ ॥ वातायनेभ्यः खलु पुष्पवर्षं वराङ्गनाबाहुलताः सलीलाः । प्रचक्षरुश्चूर्ण रजोविमिश्रं वातावधूता इव कामवल्लयः ।। ११९ ॥ पुराङ्गनास्ताः पुरमाविशन्तं कश्चिद्भटं भूपतिनैव सार्धम् । समीक्ष्य वाक्यानि मनोनुगानि जातप्रहर्षा कथयांबभूवुः ॥ १२० ॥ कश्चिद्भटं पश्यत पश्यतैनं श्रियोज्ज्वलन्तं विबुधेन्द्रलीलम् । esistantravatiदुप्ता 'जिगाय शत्रूनिति काश्चिदूचुः ॥ १२१ ॥ दूरतरादथेत्य । एकस्य हेतोः करिणो नरेन्द्रः स माधु[ थु]रो स्त्रियं सुतं कोशगजांञ्च सारानुत्सृज्य यातस्त्विति काश्चिदाहुः ।। १२२ ।। विजयी वीरों को देखने के लिए कुलीन ललनाओं के मुख उनके घरोंके वातायनोंसे बाहर निकल आये थे । वे कमलों के समान सुन्दर तथा सुगन्धित थे अतएव उनके ऊपर भोरे गूंज रहे थे। फलतः वे नारी-मुख ऐसे मालूम देते थे मानो बन्धन (डंठल ) युक्त कमल खिले हैं ।। ११८ ॥ वराङ्गनानां सबन्धनानीव ये श्रेष्ठ कुल ललनाएँ खिड़कियोंमेसे लताओंके समान सुकुमार बाहुओंको बाहर निकालकर लीलामय विधिसे विजयी वीरों पर पुष्प तथा सुगन्धित चूर्ण ( अबीर ) का बरसा रहीं थीं। इस कार्य में व्यस्त उनकी बाहुओंको देखकर हवा से हिलायी गयी लताकी कोमलताका स्मरण हो आता था ।। ११९ ।। महाराज देवसेन के साथ-साथ ही कश्चिद्भटको नगरीमें प्रवेश करता देखकर उन नागरिक ललनाओंके मनमें जो भाव उठे थे उन्हें उन सबने प्रसन्नता के आवेश में निम्न वाक्यों द्वारा अभिव्यक्त किया था ॥ १२० ॥ 'देखा, देखो इस कश्चिद्भटको तो देखो, अपनी शोभा से कैसा प्रकाशित हो रहा है, देखो तो इसकी चेष्टाएँ बिल्कुल देवोंके अधिपति इन्द्रका स्मरण करा देती हैं।' दूसरी कहती थी 'ज्ञात है इसने अकेले ही अनेक शत्रुओंको जीता है, शत्रु भी साधारण न थे, अपितु अपने बल और पराक्रम के दर्पमें चूर थे । १२१ ॥ Jain Education International उनका वाक्य पूरा न हो पाता था कि आया था, पर हुआ क्या? अपने कोश, सैन्य, धरके भाग गया है ।। १२२ ।। १. क दृष्टान् । कुतूहल प्रिय नारियाँ दूसरी कहती थी- 'मथुराका राजा केवल हाथीको लेनेके लिए उतनी दूरसे हाथियों, स्त्रियों, पुत्रों तथा सारभूत सब हो वस्तुओंको छोड़कर शिरपर पैर For Private & Personal Use Only अष्टादशः सर्गः [ ३५६] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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