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बराङ्ग चरितम्
जगज्जनानां पुरपुष्यतस्तु रिपु जिगायायमथाश्रमेण । अतोऽन्यथा केवलमानुषेण कुतो जयो लप्स्यत इत्यवोचन् ॥ १२३ ॥ काश्चिन्नरेन्द्राजित पूर्व पुण्यात्काश्चित्सुनन्दासुकृतप्रभावात् 1 काश्चित्स्वयं स्वेन पराक्रमेण रिपुं जिगायेत्यवदंस्तरुण्यः ।। १२४ ॥ कुतस्तु कश्चिद्भट एष घीमान्कुतो वणिक्केवलमानुषोऽयम् । कुतो वणिक्त्वं कुत एतदेश्यं नास्माकमस्मात्खलु विस्मयोऽस्ति ॥ १२५ ॥ राज्ञा सहायान्तमिभेन्तुमूर्ध्नि विलोक्य तं सागर वृद्धिमूचुः ।
इदं पुनः पश्यत दर्शनीयं कश्चिद्भटाय श्रियमेष भुङ्क्ते ॥ १२६ ॥ येनात्मनोपार्जितमत्र पुण्यं तेनैव भोक्तव्यमिति प्रदिष्टम् । इदं विपर्यस्तमिवोपलक्ष्यं परे कृतं यद्धि परस्तु भुङ्क्ते ॥ १२७ ॥
अन्य देवियों का तर्क था 'हमारे राज्यकी जनता तथा ललितपुर निवासियों के पुण्यके प्रतापसे हो इस कश्चिद्भटने अकेले बिना विशेष परिश्रम के शत्रुओंको जीत लिया है। नहीं तो, सोचो भी, विना देवी सहायताके अकेले मनुष्यके द्वारा क्या ऐसी जय प्राप्त की जाती है ॥ १२३ ॥
कुछ ललनाओं का निश्चित मत था कि महराज देवसेनके पुण्यकी प्रबलताने विजय दिलायी है ।' दूसरी इससे सहमत न थीं 'उनके मतसे सुनन्दा के सौभाग्य के बलपर ही कश्चिद्भट विजयी हुआ था, तीसरो अधिक अनुरक्त थी अतः उसकी दृष्टि में कश्चिद्भटका पराक्रम ही विजयका कारण था ।। १२५ ।।
'यह कश्चिद्भट कहाँ से आया था ? इतना बुद्धिमान् क्यों हैं! यह वैश्य क्यों हुआ ? यह केवल मनुष्य ही है ? इसमें वणिक्पना कैसे सिद्ध हो सकता ? और कहाँ यह प्रभुता जिसका पात्र यह क्यों है ? हमें तो सखि यही आश्चर्य है ?' कहकर अपने विचार व्यक्त करती थीं ।। १२५ ।।
सार्थपति सागरवृद्धि महाराज देवसेनके साथ-साथ श्रेष्ठ गजराज पर आरूढ़ होकर चले आ रहे थे । इन्हें देखकर ही उन्होंने आपस में कहना प्रारम्भ किया था 'हे सखि इस दर्शनीय पदार्थको तो देखो, सार्थं पति भी खूब है, कश्चिद्भटके सौभाग्य आनन्द यह सीधा-सादा वणिक् लूट रहा है, इससे बड़ा आश्चर्यं क्या होगा ।। १२६ ।।
पुत्रकी प्रेयता
क्योंकि शास्त्र तथा लोकोक्ति यही बताती है कि जो इस संसारमें पुण्य पुरुषार्थं करता है वही उसके फलोंका उपभोग
१. [ कश्चिद्भटस्य ]
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अष्टादशः
सर्गः
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