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बराङ्ग चरितम्
एषा हि नूनं मम भाविनी श्रीर्नृपस्य वा पूर्वकृतो दिपाकः । यत्र कार्य प्रतिचिन्तयामि तदेव साक्षात्समुपस्थितं मे ॥ ९० ॥ इति प्रचिन्त्यात्मनि निश्चितार्थो गुरुं समाहूय निवेश्य भूयः । युद्धाय राज्ञा सह संव्रजामि त्वं मामनुज्ञाय विमुञ्च तात ॥ ९१ ॥ तद्वाक्यसंत्रस्ततनुः पितास्य स्नेहानुरागादभिगृह्य पादौ । कुरु प्रसादं शृणु मे वचस्त्वं हितानुबन्धं प्रियमप्रियं वा ॥ ९२ ॥ जानामि ते शौर्यमवार्यमन्यैः शस्त्रास्त्रयोः कौशलमप्रधृष्यम् । प्रत्यक्षमेतन्मम सर्वमासीत्तथाप्यहं कार्यमिदं प्रवक्ष्ये ॥ ९३ ॥ युद्ध्वापि केचित्सुकृतैवहीना अप्राप्तभोगा मरणं प्रयान्ति । व्यपेतशोकाः स्वगृहे वसन्तो भोगान्विचित्रानुपभुञ्जतेऽन्ये ॥ ९४ ॥
पड़ा था कि किस प्रकार राजाकी सहायता करे, फलतः जब उसने घोषकों के वचन सुने तो उसका हर्षं दुगुना हो गया था, तथा आत्मोल्लास के कारण उसकी शोभा अत्यन्त विशाल हो गयी थी ।। ८९ ॥
यह घटना निश्चय से भविष्य में होनेवाली मेरी श्रीवृद्धिको सूचित करती है, अथवा महाराज देवसेनके पूर्वं कृत पुण्यकर्मका उदय होनेसे ही ऐसा संयोग उपस्थित हुआ है, कि मैं इस समय यहाँपर जिस कार्यको सोच रहा था वही कार्य अपने आप सामने आकर उपस्थित हुआ है। इस प्रकार सोच विचार करके उसने अपने मनमें कर्त्तव्यका निर्णय कर लिया था ||१०||
इसके उपरान्त उसने अपने पूर्वज सेठ सागरवृद्धिको बुलाकर आदरपूर्वक बैठाया था तथा उनसे निवेदन किया था कि 'मैं महाराज देवसेन के साथ समरके लिए जाता हूँ आप स्वीकृति देकर मुझे विदा करें ॥ ९१ ॥
पितृत्वका मोह
कश्चिद्भके इन वचनों को सुनते ही उसके धर्मपिताका पूरा शरीर भयके आकस्मिक संचारके कारण काँपने लगा था। स्नेह तथा अनुरागके आवेशमें आकर सेठने उसके पैर पकड़ कर कहा था 'हे वत्स ! मुझ पर कृपा करो तथा मेरे वचनों को सुनो, जिन्हें मैं तुम्हारे हितकी आकांक्षासे प्रेरित होकर कह रहा हूँ, यह मत सोचो कि वे प्रिय हैं या कटु ॥ ९२ ॥
मैं तुम्हारी शूरता को जानता हूँ, यह भी देख चुका हूँ कि दूसरा कोई भट उसे परास्त नहीं कर सकता। यह भी मुझे ज्ञात है कि तुम्हारे शस्त्रास्त्रोंकी मारसे कोई नहीं बच सकता है। क्योंकि यह सब मेरी आँखोंके सामने घट चुका है तो भी मैं आपसे इस समय कार्यको कहता हूँ ।। ९३ ।।
कितने ही रणवांकुरे सफलतापूर्वक युद्ध करके भी पूर्वपुण्य शेष न रह जानेके कारण युद्धके फलों - भोगोपभोग वैभव
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षोडश: सर्गः
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