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षोडस
सर्गः
वृत्ति विचित्रां स्वकृतानुरूपां पुंसां विचार्य क्षयिणी च लक्ष्मीम् । प्रीत्येह च श्रेयसि यधुनक्ति तदेव कार्य विदुषा नरेण ।। ९५॥
भोगाभिलाषात्तव विक्रमश्चेद्धोगान्यथेष्टानहमानयामि । वराङ्ग
अथार्थहेतोर्यवि ते प्रयासः सन्तीह ते पुत्र हिरण्यकोटयः ॥ ९६ ॥ चरितम् ।
देशं च कालं च कूलं बलं च परीक्ष्य कृत्यानि जनैः क्रियन्ते । संचिन्त्य तत्सर्वमुदारबुद्धे निर्वर्त्यतां युद्धकृताभिलाषः ॥ ९७ ॥ युद्धं त्वया 'यत्कृतमासि पूर्वमद्यापि तन्मे भयमादधाति ।
तस्मादहं त्वां शिरसाभियाचे युद्धेन कि वा सुखमास्व वत्स ॥ ९८॥ आदि फलों-को प्राप्त करनेके पहिले ही वोरगतिको प्राप्त होते हैं। तथा कुछ दूसरे ऐसे व्यक्ति भी हैं जो समरभूमिमें विना गये ही अपने घर पर आनन्द और प्रसन्नतासे रहते हैं। तथा विविध प्रकारके भोगोंका रस लेते हैं ।। ९४ ।।
मनुष्योंकका स्वभाव तथा आचार अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार हो होता है, समस्त संपत्ति और वैभवका विनाश अनिवार्य है इन दोनों बातोंको भलोभाँति समझ कर विद्वान व्यक्तिके द्वारा वही कार्य किये जाने चाहिये जो कि इस भवमें तथा अगली पर्यायमें अभ्युदय और कल्याणको दिशामें ले जा सकते हों ।। ९५ ।।
यदि तुम इस कारण युद्ध में जा रहे हो कि उसके पुरस्कार-स्वरूप पर्याप्त भोग प्राप्त होंगे, तो तुम यहीं रहो । मैं तुम्हारे लिए मनचाहे भोग जुटाये देता हूँ । अथवा अपनी सम्पत्ति बढ़ानेके लिए हो यदि तुम इस विकट प्रयत्नको करना चाहते हो, तो हे वत्स ! तुम्हारे घरमें ही असंख्यकोटि सुवर्ण पड़ा है ।। ९६ ।।
जो बुद्धिमान पुरुष हैं वे देश, काल, अपना कुल तथा बलको भलोभाँति समझ कर ही नये-नये कार्योंमें हाथ लगाते हैं। फलतः आप भी उक्त चारों बातोंको सोचिये और समझिये कारण आपकी प्रतिभा विशाल है। अतएव आप युद्ध में भाग लेनेकी इच्छाको त्याग दीजिये ।। ९७ ।।
सेठकी रणभीरता प्रवासके समय जंगलमें दस्युओंके साथ तुमने जो दारुण युद्ध पहिले किया था उसके स्मरण मात्रसे मैं आज भी डरकांप जाता हूँ, अतएव मैं अपना शिर झुकाकर अथवा अपने शिरकी सौगन्ध खाकर प्रार्थना करता हूं, कि सुखपूर्वक अपने घरमें रहो युद्धसे भला क्या लाभ है ?' || ९८ ।।
१. [ यत्कृतमस्ति, यत्कृतमास ] । __Jain Education intematio३९
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