SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराज परितम् तानहतस्त्वाप्ततमान्विवित्वा तद्वाक्यनीतार्थमतं प्रपन्नाः। संसारनिष्ठामुपगम्य धीरा निर्वाणसौख्यं परमाप्नुवन्ति ॥ ९२ ॥ तैस्तैः पुनलौकिकवैदिकाद्यैरनेकशास्त्रार्थमतिप्रवीणैः । पंचविंशः विवक्तुभिर्वीक्षितपक्षरागैः स्वपक्षसिद्धिं निजगाद राजा ॥ ९३ ॥ सर्गः कुहेतुदृष्टान्तविनष्टमार्गान्कुज्ञाननीत्यावृतलोचनांस्तान् । निरुत्तरर्वाक्यपदैर्नरेन्द्रो विबोधयामास तदा सदस्याम्॥९४ ॥ प्रधानमन्त्रीश्वरशिष्टवर्गाः पुरोहितामात्यसभाविदश्च । प्रबुद्धपद्मप्रतिमाननास्ते भृशं प्रहृष्टा गतपक्षरागाः ।। ९५ ॥ अठारहों दोषोंसे सर्वथा परे हैं ।। ९१ ।। उपसंहार जो पुरुष इन अर्हन्तकेवलियोंको युक्तिकी कसौटीपर कस लेनेके बाद परम आप्त मान लेते हैं । फिर उनके उपदेश वाक्योंके द्वारा बतायी गयी क्रियाओं तथा भावोंको जो प्रयोग रूपमें लाते हैं, वे धीर-वीर पुरुष अनादि तथा अनन्त संसारमें एक निश्चित लक्ष्य पर पहुंच जाते हैं, उनका निजी संसारचक्र रुक जाता है तथा वे सर्वश्रेष्ठ मोक्ष सुखको प्राप्त करते हैं ।। ९२॥ सम्राट वरांगने समस्त लौकिक तथा वैदिक सम्प्रदायोंका विवेचन उन्हीं वाक्योंके आधारपर किया था, जिन्हें कि अनेक शास्त्रोंके प्रकाण्ड पंडित महामतिमान धर्मों के उपदेष्टाओंने अपने-अपने पक्षका पूर्ण पक्षपात करके लिखा था । इस शैलीसे प्रतिवादियोंके पक्षपातको सिद्ध करके उन्होंने अपने मतकी पुष्टि की थी ।। ९३ ॥ सम्राट वरांगने विशेष कर उन लोगोंको समझानेके लिए जिनकी आँखें मिथ्याज्ञान और मिथ्या नैतिकतारूपी पसे । ढंक गयी थी। तथा मिथ्या हेतु और भ्रान्त निदर्शनों को सुनते-सुनते जो कि सत्यमार्गसे भ्रष्ट हो गये थे । इन लोगोंको सम्राटने प्रबल, अकाट्य युक्तिपूर्ण वाक्यों द्वारा समझाया था। जिनका उत्तर न दे सकनेके कारण वे सब चुप हो गये थे ॥ ९४ ॥ प्रधान मंत्री, श्रीमान्, पुरोहित, राज्यके शिष्ट पुरुष, अमात्य, तथा समस्त सदस्योंने सम्राटके उपदेशको सुन कर । अनादिकालसे बंधे हुए अपने मतके विवेब शून्य हठको तुरन्त हो छोड़ दिया था। उस दिनसे वे वास्तविक सत्यको पहिचान सके थे [५१०] फलतः उनकी प्रसन्नताकी सीमा न थी, उसीके आवेश में सुन्दर स्वस्थ तथा प्रसन्न मुख विकसित कमलोंको भाँति चमक उठे थे ।। ९५॥ SARASHIRSAREADLIRATHORITERSaiRSHERPAR १.[ सदस्यान् ] । n al Jain Education Inter For Private & Personal Use Only 4www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy