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________________ वराङ्ग चरितम् नरेन्द्रसद्वाक्य विवृद्धतस्वाः प्रसन्नबुद्धीन्द्रिय रागमोहाः । विपन्न मिथ्यात्वकषाय दोषाः शान्ता बभूवुर्बहवोऽपि तत्र ॥ ९६ ॥ इति विमतिमतिप्रबोधनार्थं स्वमभिमतं च 'धृतिप्रबृंहणाय । सुहृदयपरिनिर्मलत्वमिच्छन्सदसि जजल्प मनोहरैर्वचोभिः ॥ ९७ ॥ पुनरपि जिनशासनातिभक्तः परसमयानपविध्य भूमिपालः । स्वसमयममितार्थमुत्तमश्रीनिगदितुमप्रतिमं मनः प्रचक्रे ।। ९८ ।। सम्राट के उपदेशको सुनते ही उनको तत्त्वोंका रहस्य समझ में आ गया था, उनकी बुद्धि निर्मल हो गयी थी अतएव इन्द्रियाँ शुद्ध आचरणकी ओर उन्मुख हुई थीं तथा मोह, राग शान्त हो गये थे। मिथ्यात्व, क्रोध, लोभ, आदि कषायोंकी जड़ खुद गयी थी । परिणामस्वरूप कितने ही श्रोताओंने तुरन्त ही आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव किया था ॥ ९६ ॥ इतिधर्म कथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थं संदर्भे वराङ्गचरिताश्रि मिथ्या श्रुतिविघातको नाम पञ्चविंशतितमः सर्गः । भाषणका उददेश्य भरी पूरी राजसभामें पूर्वोक्त मधुर वचनों द्वारा भाषण देने में सम्राट वरांगके समक्ष तीन उद्देश्य थे - सबसे पहिले तो वे यह चाहते थे कि ज्ञानहीनता के कारण लोगोंको जो मिथ्या मार्गपर आस्था हो गयी है वह नष्ट हो जाय । दूसरे उनके विचारसे यह आवश्यक था कि लोग अपने मतको समझें, तथा जो समझते हैं उनकी भी आस्था दृढ़ हो । तीसरे उनमें ही सुदृष्टिसे इन प्रभावोंको स्थिर बनानेके लिए हृदयको परिपूर्ण स्वच्छ कर देना अनिवार्य था ॥ ९७ ॥ १. मद्रति । पृथ्वीपालक सम्राट वरांग जिन-शासनके दृढ़ भक्त थे, उनकी ज्ञानश्री लौकिकके ही समान विशाल थी। अपनी पूर्वोक्त वक्तृताके द्वारा यद्यपि वे दूसरे मतोंकी निस्सारताको स्पष्ट कर चुके थे तो भी वे अपने मतके विषय में कहना चाहते थे जो कि अनुपम तथा अनन्त ज्ञानका भण्डार है । अतएव उन्होंने और भी कुछ कहनेका निर्णय किया था ।। ९८ ।। Jain Education International चारों वर्ग समन्वित, सरल र ब्द- अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा में मिथ्या श्रुतिविघातक नाम पञ्चविंशतितम सर्गं समाप्त । For Private Personal Use Only M पंचविंश: सर्गः [ ५११] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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