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वरान चरितम्
षविंशः सर्गः अर्हन्मतमिदं पुण्यं स्याद्वादेन विभूषितम् । अन्यतीर्थैरनालीढं वक्ष्ये द्रव्यानुयोजनम् ॥ १॥ अननतपर्ययं द्रव्यं सामान्यादिकमिष्यते। तच्च दवेधा विनिर्दिष्टं जीवाजीवस्वभावतः॥२॥ तदेव त्रिविधं प्रोक्तं गुणैव्यैश्च पर्ययैः। चतुर्धा भिद्यते तच्च रूपारूपक्रियागुणैः ॥३॥ पञ्चास्तिकायभेदेन पञ्चधा भिद्यते पुनः। तदेव भिद्यते षोढा षड्द्रव्यप्रविभागतः ॥ ४ ॥
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षडविंशः सर्गः
षड्विंश सर्ग
जीवादि तत्व श्री एक हजार आठ अर्हन्त केवलोके द्वारा उपदिष्ट आहेत जैनधर्मको यहो विशेषता है कि इसमें प्रत्येक वस्तुका विचार । एक ही दृष्टिसे नहीं किया गया है अपितु स्याद्वाद् (स्यात् = हो + , वाद-अर्थात् अनेक दृष्टियोसे विचार करनेकी शैली) दृष्टिसे ही
पदार्थोंको देखा है। आईत् दर्शनकी इस विशेषताको दूसरे दार्शनिकोंने समझने तथा जानने का प्रयत्न भी नहीं किया है, अतएव वे पदार्थके एक अंगको हो उसका पूर्ण स्वरूप मानकर आपसमें विवाद करते हैं। अब मैं जैन-धर्मके अनुसार द्रव्योंके स्वरूप तथा विभागको कहता हूँ ॥१॥
___ एक द्रव्यकी पर्याय तथा गुण अनन्त होते हैं। जब हम सामान्य दृष्टिसे देखते हैं तो द्रव्यको एक ही पाते हैं। द्रव्यत्व सामान्यसे नीचे उतरकर जब हम द्रव्योंके प्रधान तथा स्थूल स्वभावपर दृष्टि डालते हैं तो चेतनामय ( जीव ) तथा चेतनाहीन (अजीव ) स्वभावोंको अपेक्षासे द्रव्यके दो प्रधान भेद हो जाते हैं ।। २॥
गुणों और पर्यायोंके समूह को ही द्रव्य कहते हैं। इन तीनोंकी अलग-अलग सत्ताका अनुभव होता है अतएव द्रव्य, पर्याय तथा गुणकी अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं । रूप ( वर्ण तथा आकार ) अरूप ( विवर्णनिराकार) क्रिया ( परिस्पन्द आदि) तथा गुणोंकी अपेक्षासे देखनेपर यही द्रव्य चार प्रकारका हो जाता है ॥ ३ ॥
अस्तिकाय (बहुप्रदेशी द्रव्य ) स्वरूपको प्रधानता देकर विचार करनेसे द्रव्यके पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति यह पाँच भेद हो जाते हैं । जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश तथा कालको सामने रखते हुए द्रव्यत्व-सामान्यके ही विशिष्ट उसी 1 एकरूप द्रव्यत्वके छह भेद हो जाते हैं ।। ४ ।।
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