________________
षड्विंशा
बराङ्ग चरितम्
जीवपुद्गलकालाश्च धर्माधमी नभोऽपि च'। षड्द्रव्याण्युदितान्येवं तेषां लक्षणमुच्यते ॥५॥ उपयोगलक्षणा जीवा उपयोगो द्विधा स्मतः। ज्ञानेन दर्शनेनापि यदर्थग्रहणं हि सः॥६॥
जीविष्यन्ति च जीवन्ति जीवा यच्चाप्यजीविषु।
ते च जीवास्त्रिधा भिन्ना भव्याभव्याश्च निष्ठिताः ॥ ७॥ अश्रद्दधाना ये धर्म जिनप्रोक्तं कदाचन । अलब्धतत्त्वविज्ञाना मिथ्याज्ञानपरायणाः ॥८॥ अनाद्यनिधनाः सर्वे मग्नाः संसारसागरे। अभव्यास्ते विनिर्दिष्टा अन्धपाषाणसंनिभाः ॥९॥ अर्हद्धिः प्रोक्ततत्त्वेषु प्रत्ययं संप्रकुर्वते । श्रद्धावन्तश्च तेष्वेव रोचन्ते ते च नित्यशः॥१०॥
सर्गः
अर्हन्तकेवलोके उपदेशके अनुसार ही आचार्योंने शास्त्रोंमें जीव, पुद्गल ( अजीव), काल, धर्म, अधर्म तथा आकाश इन छह प्रधान पदार्थोंका द्रव्यरूपसे वर्णन किया है । तद्नुसार ही अब इनको परिभाषा आदिको कहता हूँ ॥ ५ ॥
जीव तत्त्व जीवका असाधारण लक्षण है उपयोगमयता ( जीवो उवओ गमयो = दर्शन ज्ञान मयता) । जीवके अविच्छेद्य लक्षण उपयोगके भी दो प्रधान विभाग हैं-पहिला है दर्शनोपयोग तथा दूसरा ज्ञानोपयोग है। क्योंकि इन दो प्रधान ( उपयोगों) प्रवृत्तियोंके द्वारा हो वह समस्त पदार्थोका ग्रहण करता है ।। ६ ।।।
जो अनादि भूतकालमें जोवित थे, वर्तमानमें अपने चेतन लक्षण युक्त होकर जीवित हैं तथा आगामी अनन्तकाल पर्यन्त जो अपने असाधारण स्वरूप ( चैतन्य ) को न छोड़ेंगे, ऐसे जोब अपनी अन्य प्रवृत्तियोंके कारण तीन विभागोंमें विभक्त किये गये हैं। उन विभागोंके नाम हैं एक-भव्य, दो-अभव्य तथा तीसरे-मुक्त ।। ७ ॥
अभव्य वीतराग तीर्थकरोंकी दिव्यध्वनिके कारण जिस सत्य धर्मका प्रकाश हआ था उसपर जो जोव कभी विश्वास नहीं करते हैं, मिथ्या तथा भ्रान्त ज्ञानको ग्रहण करने तथा पुष्ट करनेके लिए जो सदा तत्पर रहते हैं, फलतः जगतके मूल तत्त्वोंका में वास्तविक ज्ञान उनके हाथ नहीं हो आता है ॥ ८॥
अपनी इन प्रवृत्तियोंके कारण जो जीव जन्म, जरा, मरणमय अथाह संसार समुद्र में एक दो भव पहिलेसे नहीं अपितु अनादिकालसे बिल्कुल डूबे हुए हैं। इतना हो नहीं, आगे अनन्तकाल पर्यन्त डूबे भो रहेंगे, ऐसे जोवोंको हो केवलो भगवानने अभव्य कहा है। ये लोग उस अन्धे पत्थर के समान हैं जो मैकड़ों कल्प बीतनेपर भो थोड़ा सा निर्मल नहीं होता है ॥९॥
ज्ञानावरणी कर्मका समूल नाश हो जानेपर केवलज्ञान विभूषित तीर्थकर देवने, जिन जोव, आदि सात तत्त्वोंका
१. म धर्माधर्मनभांसि च। २. [ ये चाप्यजीविषुः ] । Jain Education intemational ६५
[५१३]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org