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________________ सप्तदशः परितम् ASTRAIPukson I स्वस्वामिसंबन्धकृतप्रतिज्ञा निबहरागाः समरेऽभिलाषाः । स्ववीर्यमानोन्नतबद्धकक्षाः परस्पराङ्गानि भृशं प्रजहः॥४४॥ ईलोभिरालालितभासुराभिः पादातयः प्राक्सहसाभिहन्य। शिरांस्युरांस्यूरुकटोररीणां विचिच्छिदुस्तीक्ष्णमुखीभिराशु ॥ ४५ ॥ शरैः परास्त्राण्यभिताड्य शूरा निर्भत्स्य॑ वक्षांसि ललचिरेऽन्ये । तेलध्यमाना विगतास्त्रहस्ताः प्रसा तान्मुष्टिभिराशु जघ्नुः ॥ ४६ ॥ गर्वोभिरुर्वीभिरथा यसोभिर्गदाभिरुभ्राम्य महाबलास्ते ।। विचूर्णयांचक्रुरभीत्यर शत्रून्वज्राभिघाता इव पर्वतेन्द्रान् ॥ ४७ ॥ कचग्रहेण प्रदने प्रसह्य निपात्य भूमौ छुरिका प्रहारैः। विदार्य वक्षो जठराण्यरीणां प्राणान्विचिन्वन्त इवाशु"रन्ये ॥ ४८॥ दोनों ही सेनाओंके भट स्वामिभक्त थे, प्रभुकी विजयके लिए प्रतिज्ञा कर चुके थे, अपने प्रभुके प्रति राग तथा शत्रु राजाके प्रति द्वेषसे पूर्ण थे, युद्ध करनेके लिए लालायित थे, उन्हें अपनी शक्तिपर विश्वास था, बड़े अभिमानी थे तथा करनेट्स मरनेके लिए कटिबद्ध थे । अतएव बड़े वेगके साथ परस्परके अंग काट-काट कर फेकते जाते थे ॥ ४४ ॥ पदातियुद्ध पदाति योद्धाओंने पहिले ही आक्रमण में ईली शस्त्रका प्रयोग करके शत्रुओंके सिर, वक्षस्थल, जंघा, कमर आदि अंगोंको अकस्मात् ही काट डाला था । क्योंकि ईलियोंकी धार अत्यन्त तीक्ष्ण थी । शत्रुओंके रक्तमें रंगकर वे बिल्कुल लाल हो गयी थीं तथा उनका गहरा लाल रंग खूब चमक रहा था ।। ४५ ।। कुछ शूर योद्धा अपने प्रतिद्वन्द्वीके शस्त्रोंको बाणोंकी मारसे ही बेकाम कर देते थे । दूसरे कुछ वीर सन्मुख आये शत्रुकी भर्त्सना करते हए उचक कर उसकी छातीपर पहुंच जाते थे। इसके बाद लाँघे गये शस्त्रहीन सैनिक अवसर पाकर उन आक्रमणकारियोंको बलपूर्वक घूसे मारकर समाप्त कर देते थे ॥ ४६॥ अन्य महाशक्तिशाली योद्धा अत्यन्त विशाल तथा भारी लोहेको गदाओंको घुमाते थे जिनके प्रहारोंसे अपने चारों ओर आये शत्रु ओंको ऐसा चकनाचूर कर देते थे जैसे कि आकाशसे गिरे वज्रका अभिघात साधारण पर्वत नहीं महापर्वतोंको चूर-चूर कर देते हैं ।। ४७ ।। साक्षात् संघर्षमें कुछ योद्धा शत्र के बालोंको पकड़ कर झटकेसे पृथ्वी पर पटक देते थे । फिर कृपाणका निर्दय प्रहार १.क °यसाभिः। २. [ अभीत°]। ३. [ प्रथमे । ४. म छुरिता। ५. [ इवासुरण्ये ] । RETREILLAG [३१९] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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