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________________ वराङ्ग चरितम् तत्याज चेष्टाप्रधाना जगतः क्रियाश्च चेष्टावतां कर्म न चास्त्यसाध्यम् । चेष्टस्व तस्माल्लभते' यदिष्टं स्वर्गाविकं मोक्षसुखावसानम् ॥ ८४ ॥ विशालबुद्धिः श्रुतधर्मतत्वः प्रशान्तरागः स्थिरधीः प्रकृत्या । निर्माल्यमिवात्म राज्यमन्तःपुरं नाटकमर्थसारम् ॥ ८५ ॥ विभूषणाच्छादनवाहनानि पुराकरग्राममडम्बखेडेः । आजीवितान्तात्प्रजहौस बाह्यमभ्यन्तरांस्तांश्च परिग्रहाद्यान् ॥ ८६ ॥ अपास्य मिथ्यात्वकषायदोषान्प्रकृत्य लोभं स्वयमेव तत्र । जग्राह धीमानथ जातरूपमन्यैरशक्यं विषयेषु लोलैः ॥ ८७ ॥ लौकिक कार्य भी ऐसे हैं कि उनको पूर्ण करनेके लिए चेष्टा करनी पड़ती है तथा जो पुरुष सतत चेष्टा करते हैं उन उद्योग पुरुषों को ही सफलताका सुख मिलता है, अतएव हे राजन् ! आप भी उद्योग करें, उसकी कृपासे ही आपको स्वर्गं आदि सुखोंसे लेकर मोक्ष महासुख पर्यन्तके सब ही अभ्युदय प्राप्त होंगे ॥ ८४ ॥ सज्ज्ञानमेव वरांगराज सन्मति के अक्षय भंडार थे, धर्मके रहस्यको उन्होंने सुना तथा समझा था, सांसारिक राग उनका शान्त हो चुका था, किसी निर्णयको करके उससे न डिगना ही उनका स्वभाव था । अतएव उन्होंने विशाल साम्राज्यको वैसे ही छोड़ दिया था जैसे कोई निर्माल्य द्रव्यकी ममता करता ही नहीं है तथा अपने गुण तथा रूप युक्त अन्तःपुरको ऐसी सरलतासे भूल गया था जैसे ज्ञानी नाटक के दृश्योंको भूल जाते हैं ।। ८५ ।। नगर, खनिकोंके नगर, अडम्ब, खेड़ (ग्राम) आदिसे आरम्भ करके सम्राट वरांगने रथ आदि वाहन, बिछाने ओढ़नेकपड़े, भूषण आदि सब ही बाह्य परिग्रहों को ही नहीं उतार फेंका था अपितु इनकी अभिलाषा, राग, द्वेष, अपने जीवनका मोह आदि जितने भी आभ्यन्तर ( मानसिक) परिग्रह हो सकते थे उन सबको भी त्याग दिया था ॥ ८६ ॥ मिथ्या तत्त्वोंके श्रद्धान तथा कषाय जनित सब ही दोषोंको धो डाला था तथा लोभरूपी महा शत्रुको ( विवेक खड्गसे) काट डाला था । परम विवेकी वरांगराजने उस शुद्ध बुद्ध रूप ( दिगम्बरत्व) को धारण किया था जो कि जन्मके समय प्रत्येक जीवका होता है तथा जिसे वे पुरुष ग्रहण कर ही नहीं सकते हैं जिनकी विषयलोलुपता शान्त नहीं हुई है ॥ ८७ ॥ १ [ लभसे ] । Jain Education International For Private & Personal Use Only एकोन त्रिशः सर्गः [ ६०३ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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