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बराज
चरितम्
अन्येऽपि सामन्तनुपा महान्तः कौटम्बिकाचा द्विजसार्थवाहाः । नरेन्द्रभक्त्यापितमानसास्ते प्रवव्रजुस्तत्र सहेव राज्ञा ॥८॥ नरेन्द्रदत्तो वसुमान्बनेशोऽप्यनन्तचित्रौ च मतिप्रगल्भाः। प्रवव्रजुः स्वाम्यनुरागबद्धा वणिग्वराः सागरवृद्धिमुख्याः॥९॥ ये भूमिपालाः सुकुमारगात्रा विचित्रभोगप्रतिबद्धसौख्याः । राज्यानि संत्यज्य महद्धिवन्ति कुर्वन्ति चैतेऽपि तपांसि धीराः॥१०॥ वयं प्रकृत्या विभवैविहीना नित्यं परप्रेषणतत्पराश्च । विशेषतः साधु तपश्चराम इत्येवमुक्त्वा हि परे प्रजग्मुः ।। ९१ ॥
एकोनत्रिंशः
सर्गः
च्यारियरामा
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धर्ममें साथी सम्राटको दिगम्बर दीक्षा लेते देखकर दूसरे कितने ही राजाओं, सामन्तों, कूटुम्बियों, ब्राह्मणों, सेठों तथा अन्य उदाराशय व्यक्तियोंने भी उनके साथ ही प्रवृज्या ग्रहण कर ली थी, क्योंकि उनके चित्त उस समय भी राजाकी भक्तिसे ओतप्रोत थे ।। ८८॥
विपुल धनराशिका एक मात्र स्वामी, समस्त वनोंके उपजका एकमात्र अधिकारी नरेन्द्रदत्त, अनन्तसेन, चित्रसेन आदि राजाओंने दीक्षा ग्रहण की थी क्योंकि उनकी सूमति हित तथा अहितको परखने में पद थी। सागरवृद्धि आदि राष्ट्र के सब ही सेठोको सम्राट वरांगके प्रति इतना अधिक अनुराग था कि वही उन्हें उनके ( वरांगके) पथपर चलानेके लिए पर्याप्त था । ८९॥
. फलतः इन सब लोगोंने भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी। जिन पृथिवीपतियोंके शरीर अत्यन्त सुकुमार और कोमल थे। जिन्हें नित-नित नये-नये विचित्र भोगों तथा सूखोंका आस्वाद करानेका अभ्यास था। उन्हीं धीर-बीर पुरुषोंने उस दिन अपरिमित सम्पत्ति, सिद्धि तथा विलासके आधार विशाल राज्योंको ठकरा दिया था तथा मानसिक कल्पनाओंके शत्रु उग्र तप तथा भांति-भांतिके शारीरिक क्लेशको कर रहे थे । ९० ॥
"किन्तु हम तो जन्मसे ही विभव और प्रभतासे दर हैं, जीविकाको उपार्जन करनेके लिए प्रतिदिन दूसरोंके द्वारा इधर- उधर दौड़ाये जाते हैं, तब हम तो सरलतासे त्याग कर सकते हैं, फिर हम क्यों न तप करें" ऐसा कहकर कितने ही लोगोंने तुरन्त ही दीक्षा धारण कर ली थी ।। ९१ ॥ १. [ कौटुम्बिकाश्च ].
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