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चरितम्
सम्यक्त्वके आठ दोष-यद्यपि सम्यक् दर्शनमें ५० दोष आ सकते हैं किन्तु निम्न आठ प्रधान हैं क्योंकि इनके विनाश होने पर ही दर्शनके आठों अंग प्रकट होते हैं । वे दोष निम्न प्रकार हैं-१ शंका, २ आकांक्षा, ३ विचिकित्सा (शारीरिक विकारके कारण घृणा), ४. मुढदष्टि (कमार्गमें रुचि आदि), ५ अनुपगृहन (निन्दा करना, दोषोंको प्रकट करना), ६ अस्थितीकरण (धर्मसे गिरा देना), ७ अवात्सल्य ।
(साधर्मीसे इर्ष्या द्वेष) तथा ८ अप्रभावना (धर्मको कूपमण्डूक करना) । इनमें आठ मद, षडायतन, सप्तव्यसन, तीन शल्य, सात भय, छह वराङ्ग
अभक्ष्य तथा पांच अतिचार जोड़ देनेसे सम्यकदर्शनके ५० दोष हो जाते हैं।
अष्टादश श्रेणी-जिन शासनमें प्रत्येक राजाको अठारह श्रेणियों का स्वामी कहा है । वे निम्न प्रकार हैं-१ सेनापति, २ गणकपति (ज्योतिषी), ३ वणिकपति, ४ दण्डपति, ५ मन्त्री, ६ महत्तर (कुलवृद्ध), ७ तलवर (नगर रक्षकादि), ८-११ चारों वर्ण, १२-१५ हस्ति, अश्व, रथ, पदाति मय चतुर्विध सेना, १६ पुरोहित, १७ अमात्य तथा, १८ महामात्य ।
निश्चय नय-वस्तुके केवल शुद्ध स्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको निश्चय नय कहते हैं । यह ज्ञान पदार्थक वास्तविक निजी स्वभावको जानता है इसीलिए यह सत्य हो । जैसे जीवको अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख बीर्यादि मय तथा कर्म मल रहित जानना ।
पञ्चदशम सर्ग अष्ट द्रव्य-जिनेन्द्र पूजनकी निम्न आठ प्रकारकी सामग्री १-जल, २-चन्दन, ३-अक्षत, ४-पुष्प, ५-नैवेद्य, ६-दीप, ७-धूप तथा ८-फल ।
द्रव्य पूजा-आठ प्रकारकी सामग्रीसे भगवान् वीतरागकी पूजा करना । इसमें संभव है कि पूजक जलादि चढ़ते समय जन्म जरा मृत्यु, संसारताप, क्षय, कामदेव, क्षुधा, अज्ञान, अष्टकर्म तथा संसारके विनाशको कायेन वाचा चाहता रहे पर मनको न सम्हाल सके । प्रधानतया यह सामग्रीसे पूजा होती है ।
भाव पूजा-आठ विध सामग्रीके बिना ही जब पूजक उक्त आठों उत्पातोंके विनाशकी मनसा कामना करता है तथा वचनसे पाठ भी पढ़ता जाता है । फलतः बिना सामग्रीकी पूजाको भावपूजा कहते हैं ।
चार आहार-पेट खाली होने, भोजन देखने अथवा भोज्यकी स्मृतिसे उत्पन्न होनेवाली आहार संज्ञा मोटे तौरसे चार प्रकारके आहारसे शान्त होती है। १ खाद्य-वे वस्तएं जो दातोंसे चबायी जाय. लेह्य-व वस्तुएं जिन्हें केवल जिलासे चाटा जाय, ३-पेय वे तरल पदार्थ जिन्हें पिया जाय तथा ४-स्वाद्य वे पदार्थ जिन्हें केवल स्वाद बनानेके लिए थोड़ी मात्रामें खाया जाता है जैसे इलायची, किमाम आदि ।
निर्यापकाचार्य-क्षपक मुनि या साधक गृहस्थकी वैयावृत्यमें लीन साधुओंको निर्यापक कहते हैं । धर्म प्रेम, दृढ़ता, संसारभय, धैर्य, इंगितज्ञान, त्यागमार्गका ज्ञान, निश्चलता तथा हेयोपादेय विवेकके साथ स्व-पर वा समीचीन ज्ञान इनकी विशेषताएं हैं। इस प्रकारके ४८ उत्कृष्ट मुनि, मुनिके समाधि मरणके समय होने चाहिए । इनको नियत करने वाले मुनिवरकी संज्ञा निर्यापकाचार्य होती है ।
नन्दीश्वर द्वीप-आठवां महाद्वीप है । यतः इसके स्वामी नन्दि तथा नन्दिप्रभ व्यन्तरदेव हैं अतः इसे नन्दीश्वर द्वीप कहते हैं । इसका व्यास १६३८४००००० योजन है । इसको चारों दिशाओं में ८४००० योजन ऊँचे काले पर्वत हैं जिन्हें अञ्जनगिरि नामसे पुकारते हैं। इन पर्वतोंकी चारों दिशाओं में १लाख योजन लम्बी-चौड़ी बावड़ी (झीलें) हैं। प्रत्येक बावड़ीके बीच में १०००० यो० ऊँचे अतिश्वेत
1 [६७९] पर्वत हैं जिनकी दधिमुख संज्ञा पड़ गयी हैं । प्रत्येक झीलकी बाहरी बाजूमें एक-एक हजार योजन ऊँचे लाल रंगके दो दो पर्वत हैं, इनकी । पौराणिक संज्ञा रतिकर है इन ५२ पर्वतों के ऊपर ५२ मन्दिर हैं जहाँ पर सौधर्मादि इन्द्र देवों सहित जाकर कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़के ।
___ अन्तिम आठ दिनोंमें पूजा करते हैं। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
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