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बराङ्ग चरितम्
दशमः सर्गः
पिधाय पापास्रवमिन्द्रियाणां सुसंयता गुप्तिमहाकपाटः । तपोऽग्निना संचितकर्मकक्षं दहन्त्यशेषं हि शमाचिषा ये ॥ १४ ॥ अतन्द्रिताः संपरिगा योगं जिनेन्द्र वक्त्राभिविनिस्मतार्थम'। ये द्वादशाङ्गं हि तदङ्गपूर्वमधीयते ये गणदेवदृष्टम् ॥ १५॥ आतं च रौद्रं प्रविहाय धीरा धयं तथा शुक्लमपि प्रशक्तम् । शभान्वितं ध्यानमनन्तभेदं ध्यायन्ति ये ध्यानरता विनीताः ॥१६॥ लोष्टेष्टकाकाञ्चनवज्रसारे मानापमाने स्वजने जने वा। लाभे त्वलाभे सुखदुःखयोर्वा समानभावाः शिवमाप्नुवन्ति ॥ १७ ॥ अभ्यन्तरं बाह्यमपि प्रशस्तं द्विषट्प्रकारं हि तपोविधानम् । चरन्ति ये कर्मविनाशनाय ते सर्व एवाक्षयमोक्षभाजः ॥ १८ ॥
मरामारामारावयाचा
व्रतोंके विशाल सारको जो खींचकर आत्मसात् कर लेते हैं, जो अडिग भक्तिपूर्वक निर्दोष तथा परिपूर्ण शीलके उस भारको बहन करते हैं जिसे थोड़ी दूर ले जाना भी अतिकठिन है ।। १३ ।।
जो परमसंयमी त्रिगुप्तिरूपी विशाल किवाड़ोंको इन्द्रियोंरूपी द्वारोंपर लगाकर पाप कर्मोके आस्रवको रोक देते हैं तथा पहिलेसे संचित कर्मोरूपी गहन वनको तपरूपी अग्निकी समभावरूपी ज्वालाके द्वारा समूल भस्म कर देते हैं ।। १४ ॥
आसनादि योग लगानेपर जो आलसको दूर भगा देते हैं, साक्षात् श्री एकहजार आठ तीर्थंकर केवलीके मुखसे विनिर्गत तथा गणधर स्वामी द्वारा गृहीत द्वादश-अंगरूप आगमको जो चौदह पूर्वो सहित मनन करते हैं ।। १५ ।।
जो ध्यानवीर आर्त्त और रौद्र अशुभ ध्यानोंको छोड़कर शुभ धर्म और शुक्ल ध्यानमें ही लवलीन रहते हैं तथा अत्यन्त विनम्रताके साथ अनन्त प्रकारके शुभ भाव तथा ध्येययुक्त ध्यानोंको ही लगाते हैं ।। १६ ।।।
पत्थर-ईंटातथा सोनेमें, वनके समान सारमय पदार्थमें, आदर निरादरमें, अपने सगे सम्बन्धियों तथा जनसाधारणमें, लाभ और हानिमें, सुख तथा दुःख में जिन योगियोंके समभाव रहते हैं वे मोक्ष लक्ष्मीका वरण करते हैं ।। १७ ।।
मोक्षसाधक तप कर्मोको समल नष्ट करनेके लिए जो महर्षि अनशन, अवमौदर्य, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन १. [ निस्सृतार्थम् ] ।
मयमचायमचाच्याचमनामनामाच्यITAGE
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