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षोडसः
सर्गः
अहं च अत्रैव कयापि युक्त्या वसामि मूढः स्वहिताहिताय । एषोऽपि मे मातुल एव राजा प्रियोऽरिसैन्यैरभिविद्रुतश्च' ।। ८१॥ अभ्येत्य दूरादपि युक्तिमत्स्यात् सहायकृत्यं स्वजनेन कर्तुम् । तद्वन्धुना कार्यविदा मयाद्य समक्षभूतेन कथं प्रहेयम् ॥ २ ॥ वराङ्गनामा तव भागिनेयः सूतोऽस्म्यहं धर्मनरेश्वरस्य। इति 'ब्रुवं चेल्ललितेश्वराय न श्रद्दधात्येष च मां हसेद्वा ॥८३ ॥ इमान्स्वबन्धन्मम धर्मलब्धानुद्दिश्य योत्स्येऽहमिति ब्रवीमि । वणिक्सुतत्वात्परिभूयमानः सभासमक्षं लघुतां व्रजामि ॥ ८४ ॥
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कृतज्ञतामय भाव परिस्थितियों के चक्कर में पड़कर मैं किसो भो तरह सही; यहाँ रहता ही है, यद्यपि यह नहीं जानता कि इस निवाससे । मेरा लाभ होगा या अलाभ । महाराज देवसेनने मेरे सगे मामा हो हैं इसके अतिरिक्त यह विचारे इस समय शत्रुओंकी सेना द्वारा सताये जा रहे हैं, अतएव सम्बन्धी ही नहीं व्यसनमें भी पड़े हैं ।। ८१ ।।
सगे सम्बन्धीका कर्तव्य है कि यदि उसके किसी सम्बन्धी पर कोई विपत्ति पड़े तो चाहे वह कितने भी दूर हो उसे , । वहींसे दौड़कर सहायता करनी ही चाहिये। तब मुझे तो अपने कर्तव्यका ज्ञान है तथा मैं इतने निकट हूँ कि सब कुछ मेरी आँखों । के आगे ही हो रहा है तब मैं अपने आपको इस कार्यसे कैसे बचा सकता हूँ ? ।। ८२ ।।
भाव सेवा समर्पण "मैं आपका सगा भानजा हूँ, मेरा नाम वराङ्ग है, मैं उत्तमपुरके अधिपति महाराज धर्मसेनका पुत्र हूँ।" यह सब । बातें यदि आज जाकर ललितेश्वर देवसेनसे स्वयं कहूँगा तो विश्वास नहीं करेंगे, इतना ही नहीं बहुत संभव है कि मेरे उक्त वचन सुनकर मेरो हँसी भी करें ।। ८३ ।।
पूर्व पुण्यके उदयसे मैंने इन सब सेठोंको अपने धर्मबन्धके रूपमें पाया है तथा मैं इन सबको तरफसे इनके प्रतिनिधिके रूपमें आपकी सेनाके साथ लडूंगा, यह कहता हूँ तो मैं वणिक-पुत्र समझा जाऊँगा, फलतः लोग मेरे उत्साहकी अवहेलना करेंगे और मैं पूरी भरी राजसभाके सामने बिना कारण नीचा देख गा ।। ८४ ।।
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T१. क °निघृतश्च ।
२. म अभीग्य ।
३. [ इत्या व ] ।
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