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बराङ्ग चरितम्
सुगन्धिनानावर धूपवासैः
पुष्पप्रकारैर्बहुवर्णकैश्च ।
पृथग्विधैर्न्यस्त बलिप्रकारैरतुल्य कान्तीन्यनिशं विभान्ति ॥ २३ ॥ सोद्यानवापी हददी घिकाश्च पर्यन्तकान्तस्थितकल्पवृक्षाः । सौवर्णशैला रमणीयरूपास्तेषां गृहाणां तु बहिः प्रदेशाः ॥ २४ ॥ सुरेन्द्रलोकस्य विभूतिमेतां को ना' वदेद्वर्षसहस्त्रतोऽपि । ये तत्र गच्छन्ति पृथक्पृथक्तान् नराधिप त्वं शृणु संप्रवक्ष्ये ।। २५ ।। दयापरा ये गुरुदेवभक्ताः सत्यव्रताः स्तेयनिवृत्तशीलाः । स्वदारतुष्टाः परदारभीताः संतोषरक्तास्त्रिदिवं प्रयान्ति ॥ २६ ॥
मणियोंसे, शुक्र ग्रह तेज चमक समान कान्तियुक्त शुक्रप्रभ मणियोंसे, जाज्वल्मान और अग्निकी लपटके समान अरुण दीप्तियुक्त अग्निप्रभ मणियोंके कारण विमानों की शोभा है ।। २२ ।।
विविध प्रकारकी उत्तमसे उत्तम सुगन्धयुक्त धूप आदि सुगन्धित पदार्थोंकी उत्कट (गंध) से, विविध वर्णके तथा अनेक आकार और गन्धयुक्त फूलोंसे तथा नाना विधियोंसे अलग-अलग रखी गयी बलि सामग्री (फूल, चौक, आदि) के द्वारा उन विमानोंकी कान्ति ऐसी लगती है कि उसे कोई भी उपमा देकर समझाना असंभव ही है । यह कान्ति अस्थायी या परिवर्तनशील नहीं होती है अपितु चिरस्थायी होती है ।। २३ ।।
विमानोंके बाहर चारों ओर छूटे हुए प्रदेशोंकी रमणीयता भी अलोकिक ही होती है, उनमें स्थान-स्थानपर छोटे-छोटे उद्यान, बावड़ी, जलाशय, झील आदि बने रहते हैं, इनकी सब दिशाओं में अत्यन्त मनोहर कल्पवृक्षोंकी पंक्तियाँ खड़ी रहती हैं, बीच-बीचमें सोने आदि के सुन्दर रंगके मनमोहक क्रीड़ा पर्वत बने रहते हैं ॥ २४ ॥
देवलोककी संक्षेपसे कही गयी उक्त समस्त विभूतियोंको कौन ऐसा व्यक्ति है जो हजार वर्ष कहकर भी समाप्त कर सके ? अतएव हे भूपते ! जो पुण्यात्मा वहाँ जाते हैं उनको विशेष विगत बार मैं कहता हूँ; आप ध्यानसे सुनें ॥ २५ ॥
देवगतिका कारण
जो दयामय व्यवहार करनेके लिए कमर कसे हैं तथा सत्य गुरु, देव और शास्त्र के भक्त हैं, जो सत्यव्रतको दृढ़तापूर्वक पालते हैं, जिन्होंने पूर्णरूपसे चोरीको छोड़ दिया है, जो अपनी पत्नीपर परम अनुरक्त हैं और संतुष्ट हैं तथा परकामिनी को देखकर पापमयसे त्रस्त हो जाते हैं, तथा संपत्तिको नियमित करके संतोष की आराधना करते हैं, वे दृढ़ साधु पुरुष निश्चयसे स्वर्गं जाते हैं ।। २६ ।।
१. क को न्वा ( वा ? ) ।
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नवमः
सर्गः
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