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यः सर्वसंपत्तिगुणोपपन्नः पुण्यावहः पापहरः प्रजानाम् । दिशः स्वभासा प्रतिभासयन्स लीलामुवाहेव महाचलस्य ॥ ७४ ॥ नाम्नेन्द्रकूटो नयनाभिरामो रत्नातिहेपितबालभानुः।। सर्वत्रसौख्यः सकलेन्दुसौम्यः सदैव स श्रीनिलयो बभूव ।। ७५ ॥ उद्भिद्य भूमि स्वयमुच्छ्रितः स्यावहो विमानं नभसश्च्युतं तत् । उत्पश्यतां कामगमागतं तदित्यासताका' भुवि मानवानाम् (१) ।। ७६ ॥ नृपाज्ञयाहत्प्रतिमालयस्य सुशिल्पिनिर्वतितकौशलस्य । विभूतिरित्थं विबुधोपमेन निर्मापिता सा विबुधेन तेन ॥ ७७॥
असाधारण मन्दिर उसके निर्माणमें कोई भी सम्पत्ति तथा वैभव अछता न छोड़ा गया था । आगममें बताये गये जिन चैत्यालयके सब ही शुभ लक्षण उसमें थे ।। अतएव वह प्रजाके पापोंको नष्ट करने तथा पूण्यको बढ़ानेमें समर्थ था । उसकी छटा और ज्योतिसे सब दिशाएं प्रकाशित होती थीं। ७४ ॥
उसे देखते ही किसी महापर्वतको छटा याद हो आती थी। नेत्रोंके लिए उसका दर्शन अमृत था। उसमें लगे हुए रत्नोंकी ज्योतिके समक्ष सूर्यका उद्योत भी मन्द पड़ जाता था, पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान ही शीतलता तथा आह्वादको देता था । उसमें किसी भी स्थानपर बैठनेसे समान सुख मिलता था। शोभा और लक्ष्मीको तो वह निवासभूमि ही था ॥ ७५ ॥
उसका नाम भी यथार्थ इन्द्रकूट था। इस पृथ्वीपर रहनेवाले मनुष्योंको जब पहिले पहिले उसे देखनेका अवसर मिलता था तो वे इस ढंगके तर्क करते थे-'क्या यह जिनालय पृथ्वीको फोड़ कर अपने आप हो ऊपर निकल आया है ( अर्थात् अकृत्रिम है) अथवा कहीं स्वर्गसे अपने आप किसी अज्ञात कारणवश गिर पड़ा कोई विमान तो यह नहीं है ।। ७६ ।।
सार्थक इन्द्रकूट इस इन्द्रकूट जिनालयके बनाने में सुयोग्य शिल्पियोंने अपनी पूरीकी पूरी शक्ति, ज्ञान तथा हस्त-कौशलका उपयोग किया था। अतएव यह कहना पड़ता था कि देवोके समान बुद्धिमान तथा कार्यकुशल श्रीविबुध अमात्यने सम्राटकी आज्ञाके अनुसार ही इस मन्दिरको अनुपम वैभव तथा शोभा सम्पन्न बनवाया था ।। ७७ ।।
१.क "सुताका।
२. क पुशिल्पि।
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