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________________ इत्येवं क्षितिपतिशासनेन धीमान् दिव्याख्यः प्रियहितमन्त्रिवर्गमुख्यः । निष्ठाप्य क्रमविदनुत्तमं न चैत्यं भपायाकथयवथार्थजातमार्यः॥ ७८॥ तत्प्रोक्ता हितमहितां निशम्य वाणी संपूज्य प्रियवचनार्थदानमानैः। भूयस्तं मुदितसनाः शशास राजा सद्यस्त्वं जिनमहवृत्तये यतस्व ॥७९॥ बराङ्ग चरितम् इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते सिद्धायनप्रतिष्ठापनो नाम द्वाविंशतितमः सर्गः। आर्य विबुध सदैव अपने स्वामीको हितकामना करते थे, फलतः वे सम्राटको भी परम प्रिय थे और मंत्रिमण्डलके प्रधान थे । उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वे प्रत्येक कार्यको समुचित क्रमके अनुसार ही करते थे। अतएव श्रीवरांगराजको आज्ञासे जब उन्होंने चैत्यालय बनवाकर जिन बिम्बोंकी प्रतिष्ठाका भी समारंभ कर चुके थे तब उन्होंने सम्राटको सब समाचार दिये थे ॥ ७८॥ जिनमह प्रधान अमात्य आयं विबुधकी, कल्याणकारक होनेके कारण महत्त्वपूर्ण विज्ञप्तिको सुनते ही सम्राटने प्रियवचन सन्मान तथा भेंट देकर उनका विपुल सत्कार किया था। धर्माचरणके अवसरको सामने देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न थे अतएव उन्होंने म मंत्रिवरको फिर आज्ञा दी थी "आप जिनमह ( विशेष विधान) नामक विशाल जिनपूजनके विपुल आयोजनको शीघ्र ही करा दें"॥ ७९ ॥ IRGIRIRTAIRPETAREERAGHEIRRIAGGETAR चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें सिद्धावन प्रतिष्ठापन नाम द्वाविंशतितम सर्ग समाप्त । A[४३९] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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