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________________ बराङ्ग चरितम् त्रयोविंशः सर्गः अथ प्रशस्ते तिथिलग्नयोगे मुहूर्तनक्षत्रगुणोपपत्तौ । क्षपाकरे च प्रतिपूर्यमाणे' ग्रहेषु सर्वेषु समस्थितेषु ॥ १ ॥ संहेपयन्ती स्वरुचा वितानदिवाकर रांशून्प्रतिमा जिनस्य । संस्थापिता चैत्यगृहे विशाले नृपाज्ञया स्थापनकर्मदक्षैः ॥ २ ॥ तदाप्रभृत्येव मुदा प्रतीतो धर्मप्रियो भूपतिशासनेन । क्रियाविधिज्ञः पृथुधीरमात्यः प्रवर्तयां सर्वत्र भेरीं परिघोष्य पुर्यां किमिच्छकं त्वर्थजनाय दत्वा । धर्मक्रियोद्योगनिविष्टबुद्धी राजा जिनेन्द्रालयमभ्यगच्छत् ॥ ४ ॥ तन्महिमानमास ॥ ३ ॥ त्रयोविंश सर्ग की आज्ञा पाते ही आर्य विबुधने शुभ तिथि तथा लग्नको ज्योतिषियोंसे पूछा था। उन्होंने भी उत्तम मुहूर्त, श्रेष्ठ नक्षत्र तथा समस्त ग्रहों के सर्वोत्तम योगका क्षण निकाला था। उस समय सब ग्रह ऐसे स्थान पर थे कि कोई किसीका प्रतिघात नहीं करता था, तथा ( रात्रिनाथ ) चन्द्र भी पूर्ण अवस्थाको प्राप्त थे ॥ १ ॥ मूर्ति प्रतिष्ठा ऐसे शुभ लग्न में ही स्थापन विधिके विशेषज्ञोंने विशाल जिनालय इन्द्रकूटमें राजाकी अनुमतिपूर्वक श्री एक हजार आठ कर्मजेता जिनेन्द्रप्रभुकी प्रतिमाको स्थापित किया था। यह जिनबिम्ब अपनी कान्ति तथा तेजके प्रसारसे ( दिननाथ ) रविकी प्रखर किरणों को भी अनायास ही लज्जित कर देती थी ॥ २ ॥ आर्य विबुध स्वभावसे ही धार्मिक प्रवृत्तिके मनुष्य थे, धार्मिक क्रियाओं, विधि-विधानोंके विशेषज्ञ थे तथा उनके सर्वतो - मुख ज्ञानका तो कहना ही क्या था। इन सब स्वाभाविक गुणोंके अतिरिक्त धर्ममहोत्सव करनेके लिए राजाकी आज्ञा होने के कारण उनके हर्षकी सीमा न थी। उससे प्रेरित होकर उन्होंने जिनबिम्ब स्थापनाके क्षणसे ही जिनमहको पूरे वैभवके साथ प्रारम्भ करा दिया था ॥ ३ ॥ किमिच्छक दान पूरे नगर में भेरी बजवा कर घोषणा की गयो थी कि जिसकी जो कुछ भी इच्छा हो वही वही वस्तु निःसंकोच भावसे १. क प्रतिसूर्यमाणे । Jain Education International For Private & Personal Use Only द्वाविंश सर्गः [ ४४० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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