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बराङ्ग
द्वादशः
चरितम्
सर्गः
अथेतरे वाजिगजा नराश्च महाजवास्तेऽप्यनुगन्तुकामाः । नाशक्नुवन्पक्षिगणाः समेताः खे संपतन्तं गरुडं यथैव ॥ ४५ ॥ क्वचित्तरूणां गहनान्तरेषु निम्नोन्नतोपान्तवनस्थलीषु । तुरङ्गवेगानन्यपतच्छिरस्स्थं किरीटमनाच्च विभूषणानि ॥ ४६॥ अथोत्तरीयं निपपात भूमौ माला विशीर्णा हृदयं विषण्णम् ।। तनश्चकम्पे वदनं शशोष बभ्राम दष्टिः पिदधौ अतिश्च ।। ४७॥ अथावनोशः क्रममन्दशक्तिहयप्रवेगोन्मथितप्रतापः । बल्लीतृणाच्छादितकृपरन्ध्र पपात तेनैव हयेन सार्धम् ॥४८॥ निपत्य तस्मिन्स पुराकृतेन हयो मृतश्चूर्णितसर्वगात्रः । लतां गृहीत्वा स्वयमन्तराले कपाच्छनैर्ध्वमथारुरोह ॥ ४९ ॥
वराङ्गकी अवस्था इधर उसे वेरोक भागता देखकर उसका पीछा करनेके लिए कितने हो अत्यन्त वेगशाली घोड़े, हाथी तथा मनुष्य उसके पीछे दौड़कर भी उसे उसो प्रकार नहीं पा सके थे जैसे बेगसे झपट्टा मारकर उड़नेवाले गरुड़को आकाशमें समस्त पक्षी मिलकर भी नहीं रोक पाते हैं ।। ४५ ॥
वह दुष्ट घोड़ा अत्यन्त घने और नीचे वृक्षोंके नीचेसे तथा मागोंके आसपासको नीची ऊँची वनस्थलियोंमेंसे अत्यन्त । वेगसे दौड़ा जा रहा था, फलतः इतस्ततः उलझकर वराङ्गके मस्तकपर बंधा मुकुट तथा अन्य अंगोंसे आभूषण गिर गये थे ॥४६॥
उत्तरीय ( ऊपरका दुपट्टा ) वस्त्र पृथ्वीपर गिर गया था, गलेकी माला फंसकर टुकड़े-टुकड़े होकर गिर गयी थी, हृदय विषादसे भर गया था, पूर्ण शरीर आवेगसे काँपने लगा था, अनुताप और पिपासाके मारे मुख सूख गया था, आँखें अनिष्टकी आशंकासे घूमने लगी थीं तथा कान बहरेसे हो गये थे ।। ४७ ।।
इतनी देरतक घोड़ेकी अत्यन्त तीव्रगतिको सहनेके कारण राजाकी शक्ति धीरे-धीरे कम होने लगी थी तथा सारा पराक्रम और पुरुषार्थ ढीला पड़ चुका था। फल यह हुआ कि लताओं तथा घाससे ढके हुये एक कुएँमें वह उस दुष्ट घोड़ाके साथ जा पड़ा ।। ४८ ॥
अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मोके कुफलसे कुएँ गिरते ही उस दुशिक्षित घोड़ेका अंग-अंग चकनाचूर हो गया था और । १. क तिरीट'। २. क स्वपुराकृतेन । ३. म स्वयमन्तराणि ।
-HATRAPAHARAMESHISHEAHESHPAHAre
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