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________________ बराङ्ग चरितम् दुःशिक्षया क्षोभितदुष्टचित्तो नरेश्वरेणाश्वमता श्रमेण । निवय॑मानोऽप्यनिवृत्तवेगः क्रोधादतिक्रम्य गतोऽतिदूरम् ॥ ४१ ॥ संज्ञानभिज्ञेन नरेश्वरेण कृतानि कर्माण्यफलान्यभूवन् । उन्मार्गशिक्षे हि तुरङ्गमुख्य वक्रस्वभावे स्वकृतानि यद्वत् ॥ ४२ ॥ द्वाभ्यां भुजाभ्यामथ संनिरोद्ध यथा यथावाञ्छदतुल्यतेजाः । निरुध्यमानस्तुरगो जवेन तथा तथाधावदवार्यवीर्यः ॥ ४३ ॥ ग्रामाकरांश्चापि म'टम्बखेटान्पुराणि राष्ट्राणि बहून्यतीत्य । देशान्तमाशु प्रजगाम वाजी पातों यथोत्पातिकवातधमः ॥ ४४ ॥ द्वादशः सर्गः PS.COWASSASSWWWWWWWW जानेपर भी वह घोड़ा क्रोधके कारण उदण्ड होता जाता था और उसपर नियन्त्रण रखना असम्भव हो रहा था । थोड़ी ही देरमें उसका वेग वायु के समान तीव्र हो गया था फलतः वह धनुषपरसे छोड़े गये बाणकी तरह बहुत दूर निकल गया था ॥ ४० ॥ . मंत्री को कुशिक्षाने घोड़े के हृदयको इतना दूष्ट तथा क्षुब्ध कर दिया था कि अश्वचालनमें कुशल युवक राजा ज्यों-ज्यों पारश्रम करके उसे पीछेको मोड़ना चाहता था त्यों-त्यों उसका क्रोध बढ़ता था और गतिका बेग थोड़ा-सा भी नहीं घटता था, फलतः वह कितने ही स्थानोंको पार करता हुआ बहुत दूर निकल गया था ।।४।। अकस्मात् आये उपद्रवके कारण विचार करनेमें अक्षमर्थ राजा घोडेको नियन्त्रणमें लानेके लिए जो-जो प्रयत्न करता था वह वह निष्फल होता था क्योंकि उस बलिष्ठ एवं उत्तम घोडेको उल्टा आचरण करनेकी ही शिक्षा दी गयी थी। उसके साथ किये गये प्रयत्नोंका वही हाल हो रहा था जो कि सत्कर्मोका नीच स्वभाववाले व्यक्ति पर होता है ।। ४२ ॥ _ अनुपम पराक्रमी युवक राजा दोनों हाथोंसे लगामको खींच कर ज्यों-ज्यों उस दुष्ट घोड़ेको रोकनेका प्रयत्न करते थे, रोके जानेके कारण ( उल्टा अभ्यास होनेसे इसे वह दौड़नेका संकेत समझता था) त्यों-त्यों उसकी गति बढ़ती ही जाती थी। 7 उसकी शारीरिक शक्ति भी नियन्त्रणसे परे थी इसलिए वह और अधिक वेगसे दौड़ता था ।। ४३ ।। मार्गमें पड़े अनेक ग्रामों, खनिकोंकी बस्तियों मडम्बों, खेटों, नगरों, राज्यों आदिको शीघ्रतासे पार करता हआ वह 8 किसी अज्ञात देश में वैसे ही जा पहुंचा था जैसे, ऊपरकी ओर फेंका गया जल नीचे आता है अथवा जिस प्रकार प्रलयकी आँधी 1 [२०४] । बहती है अथवा जैसा धुआँ उड़ता है ।। ४४ ।। DEARRIEEEEEEEEET- चाouTIMESSETTE १. क मडम्ब। २.क पाथो। ३. म यथोत्पातित । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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