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________________ द्वादशः सर्गः अश्वक्रियास्वप्रतिकौशलस्य ज्ञात्वा कुमारस्य सदर्थतोषम् । सर्वाश्च सभ्यानभिसंस्तुवानानुवाच मन्त्री प्रियमित्थमाशु ॥ ३६ ॥ अतो विशिष्टो हय एष राजंस्तवैव योग्यस्त्विति संप्रभाष्य । दुःशिक्षितं वारितवागशीलं निवेदयामास युवेश्वराय ॥ ३७ ।। प्राप्तव्यतायास्तुरगानुरागायुवत्वगर्वोद्धतगौरवाच्च । दुर्गाहितं तं ह्यपरीक्ष्य साक्षादारोढुमिच्छन् नृपतिस्तदानीम् ॥ ३८ ॥ तुरङ्गमनाङ्गतरवल्गं सद्रत्नविद्युत्परिणद्धगात्रम् । मानल्यवेषः क्रिययाभिरुह्य चित्रं महत्या गमयां बभूव ॥ ३९ ॥ अथर्जुना तेन यथाविनीतः कशा कशष्ठैरवबोध्यमानः (?)। क्रोधोद्धतो वायुसमानरंहा धनुविमुक्तेषुरिव प्रयातः ॥ ४० ॥ षड्यन्त्र कार्यान्वित कुमार वरांग घोड़ोंको चाल, आदि क्रियाओं में इतने दक्ष थे कि इस विषयमें दूसरा उनकी बराबरी कर ही नहीं सकता था, फलतः वे घोड़ेकी शिक्षासे परम संतुष्ट हुए थे। मंत्री को जब इस बातका पता लग गया तो उसने घोड़ेकी प्रसंसा करनेवाले वहाँ उपस्थित नागरिकों का इन मधुर वाक्योंसे शीघ्र संबोधन किया था ।। ३६ ।। हे महाराज! यह दूसरा घोड़ा जिसकी आप तथा सब लोग प्रसंसा कर रहे हैं इस घोड़ेसे भी बहुत अधिक विशिष्ट है तथा आपके ही चढ़ने योग्य है; यह कहकर उसने दुसरे घोड़ेको जिसे छलकपट की शिक्षा दी गयी थी तथा जिसका स्वभाव और चेष्टाएँ अशुभ हो चुकी थीं उसे हो ले जाकर युवक राजाके सम्मुख उपस्थित कर दिया था ॥ ३७॥ भवित्तव्य वैसी ही थी इस कारणसे, घोड़े पर आरूढ़ होकर होने को तीव्र अभिरुचिके कारण अथवा यौवनमें सुलभ उद्धततासे उत्पन्न आत्म गौरव की भावनाके कारण ही युवराज वरांगने उस कुशिक्षित घोड़ेकी परीक्षा करना आवश्यक न समझा तथा उसी समय उसपर सवार होनेके लिये उद्यत हो गया था ।। ३८॥ वह घोड़ा भी क्या था, उसका अंग-अंग चंचल और सुन्दर था, उसका शरीर उत्तम रत्नोंकी माला, आदि सज्जासे ढका हुआ था । कुमार वरांग मंगलमय अवसरोंके लिए ही उपयुक्त-साधारणतया सवारी के लिए अनुपयुक्त–वेशभूषामें ही उस घोड़े पर विधिपूर्वक चढ़ गये और आश्चर्य की बात है कि तुरन्त ही उसे महती सरपट गतिसे चलाना प्रारम्भ कर दिया ।। ३९ ।। इसके उपरान्त जैसी कि उसे कुटिल शिक्षा दी गयी थी उसीके अनुसार बार-बार लगाम खींचकर कशा मारकर रोके 1 १. [ तदर्थं ] । २. [ °वेग° ]। ३. [ आरोढुमच्छत् ] । ४. [ चित्तं....रमयां ] । ५. म शशाक शष्ट । ६. म रहो। DASHRATIVELYRIEDOSTIOANTARIKE [२०३ ] माया Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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