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________________ ॥ एकोनविंशः सर्गः इहाप्यशीलाः परिभूयमाना दुःखान्यनेकानि समश्नुवन्ति । परत्र तीव्राण्यसुखानि भद्रे ध्रुवं लभन्ते नरकेषु मूढाः ॥ ६८।। ये शीलवेलामिह लवयेयुर्दमं महान्तं नृपतेर्लभन्ते । यथा तथा दर्शय वाग्मुखानां नृणां परत्रापि यशश्च साध्यः॥ ६९॥ सुशीलमाहात्म्यवशेन पूर्व विमुक्तशापोऽहमभूवमेषः । ततो मया लचयितुं न शक्या व्रतस्थितिः सा मुनिसाक्षिभूता ॥ ७० ॥ यद्यप्यनुज्ञां कुरुते नरेन्द्रो गृह्णामि कन्यां विधिपूर्वकेन । आप्तोऽन्यथा सर्वजनापवाद बोद न शक्तो न हितं परत्र ।। ७१ ॥ इत्येवमुक्ता प्रतिभग्नवाक्या सखी विनिर्गम्य नरेन्द्रपुत्रीम् । मनोरमां मन्मथशापबद्धामाश्वासनार्थ मधुरं जगाद ॥ ७२ ॥ दूसरी ओर देखिये, जिन्होंने अपने शीलको खो दिया है वे इसी भवमें स्थान-स्थान पर अपमानित होते हुए नाना प्रकारके अनेक दुखोंको भरते हैं। इस जन्मके उपरान्त अगले भवमें वे मुर्ख नरकोंमें उत्पन्न होते हैं तथा हे भद्रे ! वहाँपर भयंकरसे भयंकर दुखोंको पाते हैं, इस में जरा भी सन्देह नहीं है ।। ६८ ।। ____ व्यभिचारका कुपरिणाम हमारी व्यवस्थित समाजमें जो कोई भी शीलकी मर्यादाको तोड़ते हैं वे शासकोंके हाथों बड़ा भारो दण्ड पाते हैं। यह सब सहकर भी यदि किसी प्रकारसे यहाँपर वे अपने मुखको दिखानेमें समर्थ होते हैं तो उससे क्या? क्योंकि दूसरा भव तथा यश दोनों ही मनुष्य जन्मके चरम साध्य हैं ।। ६९ ।। मुझको ही लीजिये; स्वयं मैं ही इसके पहिले शीलव्रतके प्रतापसे ही एक भयंकर शापसे बचा हूँ। यही सब कारण हैं जो मुझे ग्रहण किये गये व्रतको भंग करने में सर्वथा असमर्थ कर देते हैं। फिर यह भी न भूलिये कि मैंने किसी असाधारण व्यक्तिसे A व्रत ग्रहण किये हैं। साक्षात् केवलीके समक्ष ग्रहण किये थे ।। ७० ।। अधिकसे अधिक इतना कर सकता हूँ कि यदि राजकुमारीके पिता महाराज देवसेन आज्ञा दें तो उनकी पुत्रीको धार्मिक विधि विधानके साथ ग्रहण कर सकता हूँ। ऐसा न होनेसे सर्वसाधारणमें होनेवाले सुविदित अपवादको मैं कदापि सहन नहीं कर सकता हूँ, क्योंकि वह यहीं नहीं; परलोकमें भी हितकारी न होगा' ।। ७१ ॥ विवाह ही वासना-शान्तिका एकमात्र उपाय जब कश्चिद्भटने इन युक्तियों द्वारा मनोरमाको सखीको समझाया तो उससे इनमेंसे एकका भी उत्तर न बन पड़ा २. [ सांध्यम् ] । ३. म सुशीलसंपन्नवयेन । FAIRTHERaRLEXSanatra RISARDARSHEEPALI [३७४] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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