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________________ वराङ्ग भूमिका चरितम् विपत्तिमें पडते हैं ? स्वभाव ही सबका कर्ता-धर्ता है यह मान्यता भी नहीं टिकती क्योंकि साक्षात् दुष्ट सांसारिक घटनाएं इसके विरुद्ध हैं । नियतिकी जगत-कारणता भी प्रत्यक्ष तथा तर्कसे बाधित है । यदि निर्लेप पुरुष संसारका कारण है तो पुण्य कार्य किस में लिए करणीय हैं ? ईश्वर संसारका कारण है यह मान्यता तर्कको कसौटीपर नहीं टिकती। शून्यवादका परिहास करते हुए आचार्य कहते हैं कि "जब विज्ञप्निका हो शून्य ( निषेध ) हो जायगी तब किसके द्वारा, क्या और कौन जानेगा।" इसके सिवा शून्यवाद आत्मबाधित हो है । प्रतीत्यसिद्धि भी ऐसी अवस्थामें कोई सहायता नहीं कर सकती है। इस प्रकारसे समस्त एकान्तों (नय दृष्टियों) का निरसन करके अन्त में आचार्य कहते हैं कि अनेकान्तवाद द्वारा ही तत्त्व व्यवस्था होती है क्योंकि वह सापेक्षवादपर आश्रित है । तथा इस संसारका न कोई करता है और न कोई धरता है षड् द्रव्यमय यह अपने कर्मोंसे प्रेरित स्वयमेव चलता है। जन्मना वर्ण तथा गोत्र व्यवस्थापर भी जटाचार्यने घोर प्रहार किया है। जन्मना ब्राह्मण होनेके ही कारण पूज्य पुरोहितोंकी चर्चा करते हुए उन्होंने एक बाणसे दो लक्ष्यों ( जन्मना वर्णव्यवस्था तथा यज्ञ यागादिकों) का भेदन किया है। हिंसाको निन्दा करते हुए वे कहते हैं कि यदि यज्ञमें बलि किया गया पशु स्वर्ग जाता है यह सत्य है तो स्वर्गादिके लिए लालायित पुरोहित अपने स्वजनोंकी बलि क्यों नहीं करते ? यदि हिमामय यज्ञोंके कर्ता स्वर्ग जाते हैं तो नरक कौन जायगा? इसके बाद वे पुरुदेव प्रोक्त हव्यादिका निरूपण करते हैं। वैदिक निदर्शन देकर ही वे पूछते हैं-यदि एक ब्राह्मणकी विराधनाके कारण कुरुराजाको नरक जाना पड़ा तो अनेक पशुओंका व्याघात करनेवाला याज्ञिक क्यों नरक न जायगा? इसी प्रसंगवश वे ब्राह्मणत्वको भी खबर लेते हैं । कहते हैं यदि ब्राह्म तेज सर्वोपरि है तो ब्राह्मण राजद्वारके चक्कर क्यों काटते हैं ? राजाश्रयमें ही अपने आपको कृत-कृत्य क्यों मानते हैं ? यदि ज्ञान, चारित्र तथा अन्य गुणोंका अभाव ब्राह्मणकी अवज्ञाका कारण है तो जन्म ब्राह्मणत्वका प्रतिष्ठापक कैसे हुआ। इसके बाद वे व्यास, आदि अनेक ऋषियोंको गिनाते हैं जिन्होंने अपनी साधनाके बलपर ब्राह्म तेजको प्राप्त किया था। गंगा तथा भीष्मको चर्चा करके उन्होंने लोक-मूढ़ताओंका भी निराकरण कर दिया है। तीर्थोकी तीर्थता महापुरुषोंकी साधनाके कारण है, स्थानमें गुण नहीं है यह सिद्ध करते हुए उन्होंने जिनेन्द्रदेवको आप्त सिद्ध किया है। असंभव नहीं कि आचार्यने किसी न्याय-ग्रन्थका भी निर्माण किया हो । जटाचार्यके पूर्वगामी यद्यपि आज तक यही प्रचलन है कि आचार्य रविषेणने पद्मचरितकी रचना वरांगचरितसे पहिले की होगी तथापि ऐसे कोई भी प्रमाण सामने नहीं आये हैं जिनके आधारपर निश्चित रूपसे इस कल्पनाको सिद्ध किया जा सके। वरांगचरितके प्रारम्भिक भागको देखनेपर तो इसके विपरीत दिशामें कल्पना दौड़ने लगती है। जब कि अपने पूर्ववर्ती लेखकों तथा ग्रन्थोंके स्मरणकी काव्य परम्परा थी तब जटाचार्यने हो क्यों एक भी पूर्ववर्तीका स्मरण नहीं किया है ? यह शंका उन्मस्तक होकर खड़ी हो जाती है । सांगोपांग आद्य-मंगल करनेवाले जटाचार्य क्या ऐसी भूल कर सकते थे कि उनके पहिले कोई ख्यात ग्रन्थकार हो चुके हों और वे उनका स्मरण भी न करें। कुवलयमालाका निर्देश तो यही सिद्ध करता है कि जटाचार्य आद्य महाकवि थे और SAMAGEमस्यामाराHISAUTHORE Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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