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________________ वराङ्ग चरितस् SSSSSS 150 सगोपुराट्टालक चित्रकूट चामीकरानद्धसहस्रकूट व्यालोलमालाकुलितान्तरालं विचित्ररत्नस्फुरदंशुजालं रेजेऽतिमात्रं वरहर्म्यमालम् ॥ ५८ ॥ मृदङ्गगीतध्वनितुङ्गशालम् । सुशिल्पिनिर्मापितरम्यशालं महाभ्रसंघट्टिततुङ्गकूटम् । घण्टारवैस्त्रस्तकपोतकूटम् ॥ ५७ ॥ मुक्तास्त्रगालिङ्गितचारुलीलम् । वन्दारुदिव्य स्तुतिपूरिताशं बभूव तच्चैत्यगृहं विशालम् ॥ ५९ ॥ क्वचित्प्रवालोत्तमदामयष्टिः क्वचिच्च मुक्ता'न्तरलोलुयष्टिः । ललम्बिरे ताः सह पुष्पयष्ट्या द्वारे पुनः कामलता विचित्राः ॥ ६० ॥ एक विशाल सब शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न जिनालय बनवाकर खड़ा कर दिया था ।। ५६ ।। जिनालय वर्णन जिनालयका प्रवेशद्वार विशाल था, उसके ऊपर सुन्दर अट्टालिकाएं तथा अद्भुत अद्भुत आकारके शिखर थे । जिनालय के प्रधान शिखर तो इतने ऊँचे थे कि वे आकाशको भी भेदकर ऊपर निकल गये थे। विशाल शिखरके समीप से मढ़े हुए सुन्दर एक हजार शिखर बनाये गये थे ॥ ५७ ॥ शुद्ध सोने जिनालय में बजते हुए विशाल घंटोंके तीव्र शब्दसे शिखरों पर बैठे कबूतर डरकर भाग जाते थे । मन्दिरके भीतरी भागों में अनेक मालाएँ लटक रही थीं, हवा के झोंकोंसे जब वे हिलती थीं तो बड़ी ही मनोहर लगती थीं। इन मालाओंके अन्तरालोंकी मोतीकी मालाओं ने घेर रखा था। इन दोनों प्रकारकी मालाओंके मिलनेसे एक विचित्र ही छटा प्रकट हुई थी। इस उत्तम जिनालयकी अत्यन्त सुन्दर माला में नाना भाँतिके रत्न भी पिरोये हुए थे, इनसे निकलती हुई किरणें चारों ओर फैलकर मन्दिरकी शोभाको अत्यन्त आकर्षक बना देती थीं ॥ ५८ ॥ सुयोग्य शिल्पकारों ने जिनालयके उन्नत तथा दृढ़ परकोटाको बनाया था, उसके चारों ओर बनी उन्नतशाला (दालान) में मृदंग आदि बाजों तथा गीतोंकी मधुर ध्वनि हो रही थी । अनेक स्तुतिपाटक तथा कत्थक लोग दिव्य स्तुतियाँ पढ़ रहे थे जिनकी ध्वनि से सारा वातावरण व्याप्त था। इस विधि से बनवाया गया नूतन जिनालय अत्यन्त विशाल और उन्नत था ॥ ५९ ॥ Jain Education International यदि एक स्थानपर विचित्र रंग रूपके उत्तम मूंगों की मालाएँ लटक रही थीं तो दूसरे स्थान पर उन्हांके बीच में लहलहाती हुई मोतियोंकी लड़ियाँ चमक रही थीं। परम शोभायुक्त द्वार पर मूंगा और मोतियोंकी लड़ियोंके साथ-साथ फूलों की लड़ियाँ भी लटकती थीं, इनके सिवा सुन्दर तथा सुभग कोमलता भी द्वारकी शोभा बढ़ाती थी ।। ६० ।। १. क मुक्तान्तरलोयष्टि:, [ °लोल ] । For Private Personal Use Only द्वाविंश: सर्गः [ ४३४ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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