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बराङ्ग चरितम्
तृतीयः
एकान्ततो निम्बरसश्च तिक्त इक्षोविकारो मधुरस्वभावः। यश्चाधिको येन विमिश्रितः स्यादाधिक्यतः सन्स्वरसं ददाति ॥ ५३ ।। तत्रैव पापाधिकतोऽतिदुःखं पुण्याधिकात्सौख्यमुदाहरन्ति । सुखासुखे ते च समे समत्वान्निम्बेक्षुहेतुप्रतिदर्शनेन । ५४ ॥ अज्ञानमूढा' दुरनुष्ठिता ये धर्माशयात्क्लेशगणान्भजन्ते । विपन्नमार्गाः परितप्य पश्चात्ते तीवदुःखं नरकं व्रजन्ति ॥ ५५ ॥ नाज्ञानतोऽन्यद्भयमस्ति किंचिन्नाज्ञानतोऽन्यच्च तमोऽस्ति किंचित् । नाज्ञानतोऽन्यो रिपुरस्ति कश्चिन्नाज्ञानतोऽन्योऽस्ति हि दुःखहेतुः ॥ ५६ ॥
सर्गः
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पाप-पुण्यफल यदि केवल नीमका रस हो लिया जाये तो वह अत्यन्त कडुवा होता है इसी प्रकार केवल शुद्ध ईख रस देखा जाये तो वह परम मधुर होता है । लेकिन यदि यह दोनों मिलाये जाय, तो जो रस परिमाणमें अधिक लिया जायेगा वही अधिकताके कारण अपने रसका स्वाद देगा ।। ५३ ॥
इसी प्रकार यदि जीवका पाप अधिक है तो उसे दारुणसे दारुण दुःख भोगने पड़ेंगे, और यदि उसके कर्मों में अधिकांश पुण्यानुबन्धी कर्म रहे हैं तो उसे सुखोंका स्वाद मिलेगा। यदि पाप-पुण्य वराबर हैं तो उनके परिपाक दुःख-सुखकी मात्रा भी समान रहेगी। फलतः नीम और ईखके रसोंके दृष्टान्तसे यह कथन स्पष्ट हो जाता है ॥ ५४ ।।
अज्ञानके वशीभूत होकर जो प्राणी कर्तव्य और अकर्तव्यका भेद भूल जाते हैं और धर्मके नामसे खूब दुराचार करते हैं, वे यहींपर अनेक कष्ट भरते हैं, और पथभ्रष्ट होकर सांसारिक कष्टोंकी ज्वालाओंमें झुलसते हुए अन्तमें घोरातिघोर दुःखोंके कुण्ड रौरव नरकमें जा गिरते हैं ।। ५५ ॥
अज्ञान शत्रु समस्त प्रकारके भयोंके भण्डार, इस संसारमें अज्ञानसे बड़ा कोई दूसरा भय नहीं है। अज्ञानसे बढ़कर अभेद्य कोई दूसरा अन्धकार ( सन्मार्गके दर्शनका विरोधी ) इस पृथ्वीपर नहीं है । जीवके सबही शत्रुओंका यह अज्ञान महाराजा है फलतः सम्पत्ति, प्रियजन और जीवन अपहरण करनेवाले शत्र भी इसके सामने कुछ भी नहीं हैं। कोई भी कारण हजारों प्रयत्न करके भी अज्ञानसे अधिक दुःख नहीं दे सकता ।। ५६ ।।
[५४]
क अज्ञान मख।
२.क क्लेशगुणान् ।
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