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________________ बराङ्ग त्रयोविंशः चरितम् सुगन्धिसच्चन्दनतोयसिक्ताः स्वकेशरव्याततचूर्णचाम्राः' । पर्यन्तमत्तप्रचलद्विरेफा आरोपयामास सुपुष्पमालाः ॥६६॥ सुवर्णपुष्पैविविधप्रकारे रत्नावलीभिस्तडिदुज्ज्वलाभिः । विभूषणानि प्रतिभूषयन्तों विभूषयामास तदा जिनार्चाम् ॥ ६७॥ प्रदाप्य दीपांश्च हविनिवेद्य निवेदयामास महाबलि च। स्थानं विदित्वा गहदेवताय दिशाबलीनाकरः प्रचक्रे ॥६॥ अद्भिः पवित्रीकृतहस्तपद्मः प्रदर्शयामास स दर्पणादीन् । विमुच्य मौनं ह्यभिषेचनान्ते स स्वस्तिका त्रिनिरुवाच वाचम् ॥ ६९ ॥ सर्गः आचार्यने चन्दनके उबटनसे भगवान्का लेप किया था ॥ ६५ ॥ इसके उपरान्त आचार्यने जिनबिम्बके गलेमें सुन्दर, सुगन्धित तथा अम्लान पुष्पमाला पहिना दी थी। वह माला सुगन्धित चन्दनके जलसे आई की गयी थी. अपने किंजल्कों ( जीरों) से झरे परागरूपी धूलके कारण उसका रंग धूमिल हो गया था। तथा उसकी सुगन्धसे उन्मत्त भौंरे चारों तरफ गुजार कर रहे थे ॥ ६६ ।। जिनविम्ब-शृंगार उस समय अनेक आकार और प्रकारके सोनेके पुष्पों; बिजलीके उद्योतके समान प्रखर प्रभामय रत्नोंकी मालाओं, तथा विविध आभूषणोंके समर्पणके द्वारा अर्ध्य चढ़ा कर पुजारियों और दर्शकोंने जिनपूजा (रूपी नायिका ) का ही शृंगार कर डाला था। ६७॥ चारों ओर दीपावलियाँ प्रज्वलित कर दी गयीं थीं, सब प्रकारको हवन सामग्रीका होम करनेके पश्चात् पूर्ण आहुति दी गयी थी। इसके उपरान्त आचार्यने हाथ विना सुखाये ही अर्थात् तुरन्त ही जिनालयके क्षेत्रपाल देवताओंके स्थानको निमित्त आदि ज्ञानसे जानकर उसो दिशाको लक्ष्य करके उन्हें तथा समस्त दिक्पालोंको शेषको अर्घ्य दिये थे ॥ ६८! अष्टमंगल द्रव्यार्पण इस क्रमसे अभिषेक विधानको पूर्ण करके स्नापकाचार्यने जलसे अपने हाथ धोये थे, और दर्पण, चम र आदि मंगल द्रव्यों ।। ४५५] को जिनविम्बके सामने रखकर प्रदर्शित किया था, तब उन्होंने अपने मौनको खोलकर तीन बार स्वस्तिमंत्रका वाचन किया। १. कचूम्रा, [ धूम्राः]। २.[ गृहदेवतानां ] । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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