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________________ पशूनथाज्ञानगतीननाथान्न वाञ्छतः स्वर्गसुखं कदाचित् । आहारमात्राभिरतानभवान् हत्वा जडान्कि लभते वराकान् ॥ १६ ॥ यद्यत्र सत्त्वान्विमतीन्निहत्य वेदापदेशाद्विगतानुकम्पैः । द्यौगम्यते वेदकृतात्मभिस्तैः कैर्गम्यते श्वभ्रसुखं बदन्तु ॥ १७ ॥ स्वायंभुवैर्यज्ञविधावहिंसा प्रोक्ता पुनर्जीवदयार्थमेव । वर्षत्रयप्रोषितपिण्डपिण्डैर्यदिष्यते सत्रिसमैः' पुराणैः ॥ १८ ॥ नभश्चरः सर्वनूपप्रधानो वसुमहात्मा वसुधातलेऽस्मिन् । एकेन मिथ्यावचनेन राजा रसातलं सप्तममाससाद ॥ १९॥ पंचविंशः - सर्गः GIRRIAGIRIRGIजयमालयमाच्यमान्य सगे सम्बन्धियोंका हो होम करते ।। १५ ।। संसारके भोले-भाले पशुओंको अपने हित-अहितका ज्ञान ही नहीं होता है । मनुष्यके बन्धनमें पड़कर उनके निर्वाहका १ कोई दूसरा सहारा ही नहीं रह जाता है । कूटबुद्धि मनुष्यके विरुद्ध कोई भी शक्ति उनकी रक्षक नहीं हो सकती है । वे इतने । साधारण प्राणी होते हैं कि दिन-रात अपने पेटको भरनेकी हो चिन्तामें लगे रहते हैं। वे कभी भी स्वर्ग जानेकी अभिलाषा नहीं करते हैं । तब समझमें नहीं आता कि इन मूक प्राणियोंको मारनेसे कौन-सा कार्य सध सकता है ।। १६ ॥ वेदोंकी पूर्वापर विरोधयुक्त शिक्षाओंपर विश्वास करके यदि कुछ ऐसे लोग जिनमें दया और क्षमाका नाम भी नहीं है, वे ही ज्ञानहीन भोले-भाले प्राणियोंकी बलि करते हैं, तो प्रश्न यही है कि यदि ऐसा भयंकर कुकर्म करके भी वे लोग स्वर्ग चले जाते हैं, तो बताइये विविध दुःखोंसे व्याप्त करक कुण्डमें कौन गिरेंगे? ॥ १७ ॥ प्रासुक-बलि अपने पुरुषार्थक प्रतापसे परमपदको प्राप्त स्वयंभू वीतराग (आदिनाथ ) प्रभुने पूजा तथा विधानके समय पूर्ण यत्नपूर्वक जो अहिंसा पालन करनेका उपदेश दिया है उसका प्रधान उद्देश्य जीवदया ही है। इसीलिए उन्होंने कहा था कि तीन वर्ष तक रखे रहे जौ, चावल आदि अन्नोंकी ही बलि होमके समय करनी चाहिये क्योंकि वे पुराने होकर सत्रि ( वनस्पतिकायिक समिधा ) के समान हो जाते हैं ।। १८ ॥ राजा, चक्रवर्ती, विद्याधरों आदिसे परिपूर्ण इस पृथ्वीपर महाराज वसु हुए थे। उन्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध थी, उनका वैयक्तिक आचार-विचार इतना उन्नत था कि लोग उन्हें महात्मा मानते थे, समस्त राज-मण्डलके प्रधान तो वे थे ही। किन्तु इन यज्ञोंके विषयमें ही उन्हें एक झठ वाक्य बोलना पड़ा था, जिसके फलस्वरूप वे सीधे सातवें नरक जा पहुंचे थे ।। १९ ॥ १.क सत्रितयः। -REARRIAGE Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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