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________________ प्रशस्यतां दृष्टिपथानुरोधिनी सुरूपतां चापि सुयौवनं वपुः।। सुविभ्रतो यस्य मनो मनोभुवा न नाशितं तं प्रणतोऽस्मि यत्नतः ॥ १३ ॥ चतुर्विधामेत्य गति सुदुःखिताः स्मराग्निना ये निहताः शरीरिणः । त्रयोदशः शमाम्भसा शान्तिमिताः स यस्य वै जिनो हि मेऽद्य प्रददातु सत्सुखम् ॥ १४ ॥ सर्गः शरीरि'कायस्थितिसंगशिनं निरज्जनं नि रितं निरामयम् । अमोघविद्यं निरवद्ययोगिनं शरण्यतां यामि तमद्य शान्तये ॥ १५ ॥ त्रिलोकबन्धुस्त्रिजगत्प्रजाहितस्त्रिलोकचूडामणिराप्तकेवलः । त्रिकालदर्शी सुगति समेयिवान्स मां जिनो रक्षतु दुःखसंकटात् ॥ १६ ॥ शरीरमें यौवन समुद्र लहरा रहा था तथा आँखों को हठात् अपने ओर आकर्षित करनेवली मूर्तिमान सुन्दरता, (रूपवती स्त्रियों ) के सदा ही आँखों के सामने रहने पर जिन वीतमोह जिनेन्द्र प्रभुके मेरू समान अडिग मन को कामदेव के द्वारा थोड़ा भी, वासना दूषित न किया जा सका था उनके चरणोंमें त्रियोग-पूर्वक प्रणाम करता हूँ ॥ १३ ॥ नरक आदि चारों गतियों में जन्म मरण करके बुरे-बुरे दुखों को भरनेवाले तथा अप्रतीकार कामको ज्वालामें भस्म किये गये संसारी जीव जिन वीतराग प्रभुको प्रशमभावरूपी जलधारासे सिक्त होकर आत्मिक शान्तिको प्राप्त हुए हैं उन्हीं कर्मजेता जिनेन्द्रदेव की भक्तिः इस विपत्ति कालमें, मेरे कल्याणकारक सुख का कारण हो । १४ ।। सांसारिक सुखोंकी शान्ति प्राप्त करने को अभिलाषासे मैं आज उन्हीं जिनेन्द्र देवकी शरण लेता हूँ जिन्होंने शरीरी (आत्मा) और शरीरके रहस्यको तथा सम्बन्धको आत्मदृष्टिसे साक्षात् देखा था, जो सब प्रकारकी कालिमाओं से परे हैं, पाप उनकी तरफ देख भी नहीं सका है, रोगोंको उनतक पहुँच ही कैसे हो सकती है ? जिनका अनन्तज्ञान सत्य और सफल है । तथा जो सब दोषों से रहित योगी हैं ॥ १५ ॥ प्राणिमात्र पर वात्सल्य करनेके कारण जो तीनों लोकोंके सगे भाई हैं, समस्त भुवनोंकी प्रजाका कल्याण चाहते हैं, । तीनों लोकोंमें मुकुटमणिके समान श्रेष्ठ हैं, मिथ्या मार्गकी वंचनासे बचाकर सन्मार्ग दिखानेके कारण आप्त हैं, केवली हैं फलतः भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानको साक्षात् देखते हैं, तथा अन्तमें जिन्होंने सबसे बढ़कर गति (मोक्ष ) को प्राप्त किया है उन्हीं कर्मजेता प्रभुका आदर्श मुझे भी दुखों और संकटोंसे पार करे ॥ १६ ॥ [२१८] .क शरीर। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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