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________________ त्रयोदशः चरितम् सर्गः सजातयो रोगजरोख्मत्यवो यथाक्रमं लोकमिमं जिघांसवः । समुद्धता येन चिराय निस्तुषाः स मे विमुक्ति विदधातु नक्रतः ॥ १७ ॥ निरस्तदर्नीतिविशेषसाधनो विशिष्ट दिव्याष्टसहनलक्षणः । परीषहक्लेशविजिष्णुरद्य मां स रक्षतु प्राहमुखाग्जिनेश्वरः ॥ १८॥ इति स्तुवानं प्रविशुद्धचेतसं स्थितं च सम्यग्जिनदेववर्त्मनि । स्तुतिप्रसादैधितपुण्यपौरुषं ददर्श यक्षो सहसा नृपात्मजम् ॥ १९ ॥ निरीक्ष्य या तं भृशमापदि स्थितं वयान्विता सा 'वसदारितात्मकम् । अदृष्टरूपा शनकैः सुदर्शना विमोचयां ग्राहभयानुभव ॥ २०॥ अपेतनक्रो बहिरेत्य तत्क्षणात्सविस्मयः सर्वदिशो निरीक्ष्य च । न किंचिदैक्षिष्ट विमोचकं परं जिनप्रसादाविदमित्यमन्यत ॥ २१ ॥ Came-Re-HTHASHTHHTHHAPagews क्रमपूर्वक सारे संसारको अपने चक्कर में डालकर नष्ट करने वालो जन्म महाव्याधि से प्रारब्ध जीवनव्यापी रोग, बुढ़ापा और मृत्युको संसारिक विषयोंकी प्यास को सुखाकर जिन्होंने अनन्तकालके लिए उखाड़ कर फेंक दिया है, उन्हीं संसार जेता प्रभु की भक्तिके प्रसाद में मैं भी घड़ियालके मुख से मुक्ति पाऊँ । १७ ।। _ विशेष तर्क प्रणालीके द्वारा जिन्होंने मिथ्या न्याय शैलोका दिवाला खोल दिया है, लोकोत्तर एक हजार आठ लक्षणोंके स्वामी हैं, क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहोंको जीत लिया है तथा जो किसी भी प्रकारके क्लेशोंके आक्रमणको व्यर्थ कर देते हैं उन्हीं दोषजेता वीतराग प्रभुका स्मरण आज नक्रके मुखसे मेरी मुक्तिका कारण हो ॥ १८॥ शुभभावका फल अत्यन्त सरल और शुद्ध अन्तःकरणसे जिनेन्द्र देवकी उक्त स्तुतिमें लीन, पूर्णरूपसे जिनदेव प्रणीत धर्ममार्ग में स्थित तथा निष्काम स्तुतिके प्रभावसे तत्क्षण बढ़े हुए पुण्यके स्वामो युवक राजपुत्र पर उसी समय अकस्मात् ही किसी यक्षिणोकी दृष्टि जा पड़ी ॥ १९ ॥ कठोरतम विपत्तिमें पड़े हुए तथा सब प्रकारसे विवश होकर भी अपने प्राणोंको धारण किये हुए राजपुत्रको देखते ही उसकी स्त्री हृदय-सुलभ करुणा उमड़ आयी फलतः दर्शनीय रूपराशिकी स्वामिनी उस यक्षिणीने अपने आपको प्रकट किये बिना। ही राजपुत्रको धीरेसे ग्राहके मुखसे छुड़ा दिया था ॥ २० ॥ नक्रके मुखसे छुटकारा पाते ही वह सीधा तालाबके बाहर आया और उसी क्षण सब दिशाओं में दृष्टि दौड़ायी।। । १. [व्रतधारि]। २१९) Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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