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________________ वराङ्ग त्रयोदशः चरितम् इदं मनुष्यत्वमनेकजन्मतः सुलभ्य जात्यादिगुणांश्च सर्वथा। प्रवञ्चितो मोहबलैरितः 'स्मृतिरितस्त्रिभिः शतमोऽस्मि नित्यशः ॥ २२ ॥ तपश्च सज्जानमनूनदर्शनं त्रिरत्नमेतत्त्रिजगद्वितप्रदम् । जिनप्रसादोदयतो भवे भवे तदस्तु मे संसृतिमोक्षकारणम् ॥ २३ ॥ इति ब्राणस्य महीपतेः शनैनिशम्य देवी वचनं प्रसन्नवत् । विसृज्य वैकारिकरूपमात्मनः स्थिता पुरस्ताद्विपरीक्षितुं पुनः ॥ २४ ॥ प्रलम्बहारोज्ज्वलहेमकुण्डला प्रफुल्लमा लस्तबकावतंसिनी। कराग्रसंधारितमाधवीलता वराङ्गना सस्मितमब्रवीद्वचः ॥ २५ ॥ सर्गः DeliचायनाममाRAIRATRE किन्तु उसके आश्चर्यका तब ठिकाना न रहा जब उसने अपने आसपास किसी भी ऐसी वस्तुको न पाया जो उसका विमोचक हो सकती थी। अन्तने उसने समझा था कि 'जिनेन्द्रदेवकी भक्तिके प्रसादसे हो वह बच गया है' ॥ २१ ॥ नरक, तिर्यञ्च तथा देवयोनिमें अनेक जन्म धारण करनेके पश्चात् इस मनुष्य जन्मको पाकर तथा इसमें भी शुद्ध । मातृ-पितृ कुल जाति, स्वास्थ्य आदि श्रेष्ठ गुणोंको प्राप्त करके भी मोहनीय कर्मसे पूर्ण प्रेरणा तथा शक्ति पानेवाले आठों कर्मों1 के द्वारा मैं बुरी तरह ठगा गया हूँ यह स्मरण होते हो उसने निर्णय किया था कि 'इसो समयसे मैं अपने मन, वचन और काय तीनोंको अत्यन्त शुद्ध रखूगा' ॥ २२ । आठों दोषों रहित परिपूर्ण सम्यकदर्शन. यथार्थदर्शी सम्यकज्ञान तथा सम्यकचारित्र लोकत्रयमें सुविख्यात ये तीनों रत्न भव-भवमें जिनेन्द्रदेवकी भक्तिके प्रसादसे मुझे प्राप्त हों और मेरी संसार यात्रा तथा मुक्ति प्राप्तिमें सहायक हों ।। २३ ।। जब युवक राजा अपने आपको सम्बोधन करके उक्त वाक्य कह रहा था, उसका उद्धार करनेवाली देवी यह सब सुनकर मानों प्रसन्न ही हो गयी थी। अतएव अपने विक्रिया ऋद्धिजन्य सूक्ष्मरूपको त्याग कर युवराजको परीक्षा लेनेके लिए ही अपने स्वाभाविक सुन्दर रूपमें उसके सामने आ खड़ी हुई थी ।। २४ ॥ उसकी शंख समान सुन्दर ग्रीवामें लम्बा हार लहरा रहा था, कानोंमें सोनेके सुन्दर कुण्डल चमक रहे थे, विकसित पुष्पोंकी माला तथा फूलोंके गुच्छोंके ही कर्णभूषणोंकी शोभा भी विचित्र थी तथा वह अपने हाथमें माधवी लताकी मंजरी लिये थी। इस स्वाभाविक अल्प शृंगारसे उस उत्तम नारीका सौन्दर्य चमक उठा था, इसपर भी उसने वराङ्गसे स्मितपूर्वक वार्तालाप प्रारम्भ किया था॥ २५ ॥ RAMELESEATHERSITrwarSHTRA २२० । मामा १. [ लैरितिस्मृतीरित°]। २. [°माला ] | www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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