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________________ वराङ्ग चरितम् और भवभूतिकी श्रेणी में बैठा दे सकता है। जो भी हो इतना निर्विवाद है कि सातवीं शतीके मध्य में जैनधर्मको दक्षिण भारतके कनारीमण्डलमें प्रमुखता प्राप्त थी। पल्लव सिंहवर्मन ( ४३६ ई० ) के राज्यारोहणसे लेकर कल्याणी चालुक्य तेल द्वितीय द्वारा राष्ट्रकूटोंके पान (९७३ ई० ) पर्यन्तका ऐसा युग है जब अन्तरा अन्तरा जैनधर्मं को भी राजधर्मं होनेका सौभाग्य प्राप्त रहा है। पल्लववंश के संस्थापक यद्यपि सिंहवर्मन थे तथापि इसके वास्तविक प्रतिष्ठापक सिंहविष्णु थे। ये ईसाकी छठी शती के उत्तरार्द्ध में हुए हैं। इनके पुत्र महेन्द्रवर्मन प्रथम जब सिंहासनपर बैठे तो इनका चालुक्योंके साथ वह संघर्ष चला जो कि इनके उत्तराधिकारियों के लिए पैतृक देन हो गया था । ऐहोल शिलालेख कहता है कि 'पल्लवपति ( महेन्द्रवर्मन प्र० ) के प्रतापको पुलकेशी द्वितीय ने अपनी सेनाको धूलसे आछन्न करके प्राकारान्तरित कर दिया था ।" पुष्पभूति वंशमें जात उत्तर भारत चक्रवर्ती हर्षको ‘विगलित हर्ष'' करनेवाले पुलकेशीके लिए यह साधारण सी ही बात रही होगी । किन्तु इसने पल्लव- चालुक्य वैरको बद्धमूलकर दिया था । पल्लव लेख बताते हैं कि नरसिंहवर्मन प्रथमने अनेक युद्धों में पुलकेशी द्वितीयको हराकर अपने पिताको पराजयका प्रतिशोध किया था। फलतः चालुक्य विक्रमादित्य प्रथमको नृसिंहके वंशका विनाश करके काञ्चीपर अधिकार करना पड़ा था। इस आक्रमणसे भी पल्लव हतोत्साह नहीं हुए थे ओर ८वीं शती के पूर्वार्द्धमें विक्रमादित्य द्वितीयके घोर प्रहार पल्लवशक्तिको जर्जरित कर सके थे। परिणाम यह हुआ दक्षिणसे चोलोंके भी प्रहार होनेपर पल्लव शक्ति ९वीं शती के साथ समाप्त हो गयी थी । किन्तु पल्लवकालमें काञ्चो जैनोंका प्रमुख केन्द्र थी। आचार्य समन्तद्र, भट्टाकलंक आदि प्रमुख जैन नैयायिकोंने काञ्च गौरवकी श्रीवृद्धिकी थी । काञ्चीके भग्नावशेषोंमें विष्णुकांची और शिवकांचीके समान जिनकाञ्ची (निरुपरुत्तिकुम् ) भी उपलब्ध है । यह शैव और वैष्णव भग्नावशेषोंसे दूर ही नहीं है अपितु अधिकतर जीर्ण शीर्ण भी है। इसकी अवस्था इस बात का संकेत करती है कि वैष्णवों और शैवोंके पहिले इस प्रदेशने जैनों की प्रमुखता देखी होगी । इतिहास बताता है कि पांड्योंद्वारा प्रारब्ध शैव-बलात्कार चोलोंके समयमें चलता रहा था। फलतः आदित्य चोल द्वारा अपराजित पल्लवका मूलोच्छेद हो जाने के बाद जैन संस्कृतिके प्रतीक असंख्य जैन मन्दिरादि चोलोंके धार्मिक उन्मादके शिकार न बने हों यह असंभव है । अगणित भग्नावशेष यही कह रहे हैं कि हमें चीनी यात्री ह्वेनसांगने इस द्रविड और मालकूट भूमिमें खड़ा देखा था । चालुक्य काल में आचार्य रविकीर्ति द्वारा मेगुतिमें जिनेन्द्र भवनका निर्माण स्पष्ट बताता है कि पल्लवोंके समान १. ऐहोल शिलालेख, श्लोक २९ २. ऐहोल शिलालेख, श्लोक २३ ( ए० ई० भा० ८, पृ० ६ ) ३. घाटरकृत ह्वेनसांगकी यात्रा, ( खं० २, पृ० २२६-९ ) ४. तस्याम्बुधित्रय निवारितशासनस्य सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् । शैलजिनेन्द्रभवनं भवनंमहिम्नान्निरमापितं मतिमता रविकीतिनेदम् ।। [३५] For Private & Personal Use Only Jain Education International भूमिका [२०] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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