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________________ वराङ्ग चरितम् TIRETREETrail प्रजायमानान्सहसा समीक्ष्य सुमङ्गलाविष्कृतपुण्यघोषाः । प्रस्फोटिताः श्वेणितमुष्टिनादाः (?)कुर्वन्ति देवा मुदिता नमन्तः ॥ ३९ ॥ नृत्यन्ति तत्राप्सरसो वराङ्गयो वीणाः सलोलं परिवादयन्ति । गायन्ति गीतानि मनोहराणि चित्राणि पुष्पाण्यभितः किरन्ति ॥ ४० ॥ ते दिव्यमाल्याम्बरचारुभूषा मनोऽभिनिर्वतितसर्वसौख्याः । ऐश्वर्ययोगद्धिविशेषयुक्वाः प्रियासहाया विहरन्ति नित्यम् ॥४१॥ दयातपोदानदमार्जवस्य सद्ब्रह्मचर्यव्रतपालनस्य । जिनेन्द्र पूजाभिरतेविपाकोऽप्ययं स इत्येव विबोधयन्ति ॥ ४२ ॥ स्वभावतो वालदिवाकराभाः स्वभावतः पूर्णशशाङ्कसौम्याः । स्वभावतश्चारुविभूषणानाः स्वभावतो दिव्यसुगन्धिगन्धाः ॥ ४३ ॥ जब अन्यदेव अकस्मात् ही नूतन देवोंको जन्मते देखते हैं तब वे अत्यन्त मंगलमय स्तुतियों तथा उनके पुण्यात्मापनको प्रकट करनेवाले 'जय' आदि घोषोंको करते हैं। इतना ही नहीं अपितु वे उनके जन्मकी सूचना देनेके लिए तालियां बजाते हैं, फटाके आदि स्फोटक पदार्थोंको फोड़ते हैं, तोपों आदिको सी क्ष्वेणित (धड़ाका) ध्वनि करते हैं तथा बड़े उल्लासके साथ निकट आकर उन्हें प्रणाम करते हैं ।। ३९॥ अति आकर्षक श्रेष्ठ सुन्दर शरीर धारिणी वरांगी अप्सराएँ उनके सामने नृत्य करती हैं, वे बड़े हावभावके साथ वीणाको विविध प्रकारसे बजाती हैं, मनको मुग्ध कर देनेवाले मधुर गीत गाती हैं, तथा रंग विरंगे फूलोंको हर तरफसे उनके ऊपर बरसाती हैं ।। ४० ॥ अतीव सुन्दर अलौकिक वस्त्र, माला तथा सुललित भूषणोंको धारण किये हुए वे देवलोक सी परिपूर्ण प्रभुता, असाWधारण तथा अविकल सम्पत्तिको प्राप्त करते हैं। उनकी सुख सामग्री विषयक समस्त अभिलाषाएँ मनसे सोचते ही पूर्ण हो जाती हैं तथा उनके लिए हो प्रतीक्षामें बैठी अनेक देवाङ्गनाओंके साथ वे दिन रात विहार करते हैं ।। ४१ ॥ दयामय भाव, निरतिचार तप, सत्पात्र दान, इन्द्रिय दमन, मानसिक सरलता, उत्तम ब्रह्मचर्यव्रतका प्रयत्नपूर्वक पालन, श्री एक हजार आठ देवाधिदेव वीतराग प्रभुकी अष्ट द्रव्य द्वारा भाव और द्रव्य पूजा करनेको प्रवृत्ति तथा उत्कट इच्छा आदिके परिपाकका ही यह सब फल है, ऐसा सज्ज्ञान भी उन्हें होता है ।। ४२ ।। देवशरोर ___ स्वभावसे ही उनका तेज अरुणाचलपर विराजमान सूर्य के समान होता है। किसी बाह्य प्रयल अथवा संस्कारके बिना 1 १.म पुण्यपापाः। २. [ प्रस्फोटितक्ष्वेडितमुष्टि नादान् ] । HEACHIKE [१५४] Jain Education intemnational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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