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________________ बराङ्ग चरितम् पुरुषो यदि कारकः प्रजानां सुखदुःखान्यनवरुप्त पौरुषाणाम् । व्रतदानतया विनिष्फलानि परघातानृतमैथुन क्रियाश्च ॥ ४२ ॥ प्रकृति महदादि भाव्यते चेत्कथमव्यक्ततमान्नु मूर्तिमत्स्यात् । इह कारणतो नु कार्यमिष्टं किमु दृष्टान्तविरुद्धतां न याति ॥ ४३ ॥ यदि शून्यमिदं जगत्समस्तं ननु विज्ञप्तिरभावतामुपैति । तदभावमुपागतोऽनभिज्ञो विमतिः केन स वेत्ति शून्यपक्षम् ॥ ४४ ॥ अथ सर्वपदार्थ संप्रयोगः सुपरीक्ष्य परिदृष्टं विगमे सतो महद्भिः ॥ ४५ ॥ सदसत्प्रमाणभावान् । न च संभवति ह्यसत्सुशून्यं सांख्यवाद निरसन यदि सांख्योंका पुरुष ही संसारकी पूर्ण सृष्टिके लिए उत्तरदायी है, तो ऐसी प्रजा जिसने अपने में पूर्ण पुरुषत्त्वका साक्षात्कार नहीं किया है, उसके सुख-दुःखकी व्यवस्थाका आधार क्या माना जायगा ? इनके द्वारा आचरित व्रतोंका पालन, दानका देना, घोर तपोंका तपना आदि उसी प्रकार व्यर्थ हो जायँगे जैसे कि दूसरे के प्राणोंका लेना, असत्य वचन, व्यभिचार आदि, निष्फल तथा पापबन्धके कारण न होंगे ॥ ४२ ॥ यदि ऐसा माना जाय कि स्थल प्रकृति ही महत, अहंकार आदिको उत्पन्न करती है, तो यह शंका उठती है कि अव्यक्त (जिसका आकार तथा स्वरूप स्वतः प्रकट नहीं है ) प्रकृति से संसारके समस्त व्यक्त तथा निश्चित मूर्तिमान पदार्थों की सृष्टि कैसे होती है ? संसारका यही नियम है कि जैसा कारण होता है उससे वैसा अर्थात् उन्हीं गुणोंयुक्त कार्यं उत्पन्न होता है । अतएव प्रकृति द्वारा सृष्टिका सिद्धान्त संसारमें मान्य दृष्टान्तसे विरुद्ध पड़ता है ॥ ४३ ॥ शून्यवाद • यदि चल तथा अन्चल द्रव्योंसे व्याप्त यह जगत वास्तवमें शून्य स्वरूप है, तो स्थूल पदार्थोंका ही अभाव न होगा, अपितु ज्ञानका भी शून्य ( अभाव स्वरूप ) हो जायगा । ज्ञानको भी शून्य अथवा असत् माननेका तात्पर्यं होगा संसारके प्राणियों को ज्ञानहीन मानना - अर्थात् वे कुछ भी जाननेमें असमर्थ हैं - तब प्रश्न होगा कि मतिहीन शून्यवादका समर्थक किस उपायकी सहायतासे अपने पक्षको जानेगा ॥ ४४ ॥ तब यही कहना होगा कि समस्त पदार्थोंके सद्भाव और अभाव स्वरूपकी सूक्ष्म परीक्षा कर लेनेके बाद ही संसारके पदार्थोंके स्वरूपका निर्णय, उपयोग आदिको व्यवस्था की गयी है। तथा पदार्थोंके किसी एक विशेषरूपमें न रहनेसे ही उनका सर्वथा शून्य होना नहीं माना जा सकता है क्योंकि महान् ज्ञानियोंका अनुभव है कि एकरूपमें पदार्थ के नष्ट हो जानेपर भी किसी न किसी रूपमें उसका सद्भाव रहता ही है ।। ४५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only चतुर्विस: सर्गः [ ४७७ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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