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________________ n a पञ्चमः बराङ्ग चरितम् आदचन्दनकल्कानि विषाक्तानि ससंभ्रमात् । लिम्पन्त्यन्तविदाहीनि परस्त्रीसुरतप्रियान् ॥ ५९॥ माल्याभरणवस्त्राणि तप्तताम्रमयानि च । धारयन्ति परस्त्रीणां रतिसंगमकर्कशाः ॥६०॥ सोपचाररुपासत्य सुरताहवकोविदान् । हावभावविलासिन्यो बुवन्त्यः स्वागतक्रियाः॥ ६१ ॥ पूर्वजन्मकृतस्नेहात्संबन्धाच्च विशेषतः । भावयन्ति स्त्रियः पुंस आश्लिष्यन्ति प्रिया इव ॥ ६२॥ ताभिराश्लिष्यमाणाश्च दग्धसर्वाङ्गयष्टयः। घृतवत्प्रविलीयन्तेऽन्याङ्गनाङ्गप्रसङ्गिनः ॥ ६३ ॥ तस्मिन् देशे तथा विद्धि आवयो रतिविभ्रमः । इति ब्रुवन्तः पापिष्ठा बाधन्ते बाधितान्पुरा ॥६४॥ स्त्रीणां पुरुषरूपाणि स्त्रीरूपाणि नणां पुनः । सुतप्तैरायसैस्ताम्रविकुर्वन्ति परस्परम् ॥६५॥ सर्गः पर स्त्री-गमनका फल जो लोक इस संसारमें दुसरोंकी पत्नियोंसे या अन्य स्त्रियोंसे संगम करनेके लिए लालायित रहते थे या करते थे वे ही। मरकर जब नरकोंमें पहुँचते हैं, तब वहाँ उपस्थित नारकी तुरन्त ही दौड़ दौड़कर बिषसे मिली हुई चन्दनकी गीली गीली कीचड़ शरोरपर लेपकर उनका स्वागत करते हैं । इस लेपके लगते ही उनका सारा शरीर भीतरसे जलने लगता है ॥ ५९ ।। दूसरी स्त्रियोंमें रातिकेलि करनेवालोंको, अथवा परस्त्रीसे निर्दयतापूर्वक संभोग करनेवालोंको नारकी गरमागरम लोहेसे या ताँबेसे बनाये गये गहने,मालायें तथा कपड़े आदि जबरदस्ती ही पहिना देते हैं। संभोगरूपी युद्धके परम ज्ञाता जीवोंके पास नारकी स्त्रियाँ बड़े हावभाब और शृंग्रारके साथ आती हैं ।। ६० ।। उनकी श्राङ्गारिक चेष्टाएं, भाव, संकेत तथा प्रेमसे कहे गये वचन ऐसे होते हैं जो कि स्वागतका काम देते हैं। इतना ही नहीं।। ६१ ॥ वे स्त्रियां पूर्वजन्ममें किये गये अनैतिक प्रेम, और सम्बन्धों आदिकी प्रेरणा पाकर उन नारकियोंके मनको विशेष रूपसे अपनी ओर आकृष्ट कर लेती हैं तब वे उन्हें अपनी प्राण प्यारियाँ समझकर जोरसे आलिंगन करते हैं ।। ६२॥ उनका आलिंगन करते ही उन्हें ऐसा अनुभव होता है, मानो सारा शरीर ही किसी ज्वालासे चिपटकर जल गया है, इतना ही नहीं दूसरेकी स्त्रियोंको बहकाकर उनका स्त्रीत्व दूषित करनेवाले वे नारकी, उन स्त्रियोंसे चिपकनेपर घीकी तरह पिघल जाते हैं और उनका संपूर्ण शरीर ही बह जाता है । ६३ ।। 'उस स्थानपर उस भवमें हम दोनोंने उस, उस तरहसे प्रेमलीला और संभोग किया था' इत्यादि बातें वे पापी नारकी जीव कहते हैं। और इसके बाद उन्हें ही फिर नाना तरहके कष्ट देते हैं जिन्हें पूर्वभवमें भी अनेक कष्ट दिये थे ।। ६४ ।। कष्ट देनेके लिए ही नारकी परपुरुषोंसे प्रेम करनेवाली स्त्रियोंके सामने वे खुब गर्म लोहे या ताँबेके पुरुष बना देते हैं । तथा परस्त्रीगामी पुरुषोंके आगे स्त्रियाँ बनाकर खड़ी कर देते हैं। इस तरह आपसमें आलिंगन आदि कराके वे उन्हें दुख देते हैं ।। ६५ ।। ARRAHASHIRAIPHPawaeseREAsmeera [९१] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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