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________________ वरांग चरितम् अष्टमः सर्गः नक्तंदिवं क्लेशसमाश्रितानि कर्माण्यनिष्टानि समाचरन्तः । दुःखादिताः सस्तविषण्णचित्ताः स्वेष्टान्यलब्धवा मरणं प्रयान्ति ॥ ३५॥ बाधिर्यमान्ध्यं कुणिकुब्जभावं क्लीबत्वमकत्वजडग्रहांश्च । आजन्मनस्ते तदवाप्नुवन्ति प्रायो जना दुष्कृतिनो वराकाः ॥ ३६ ॥ दुर्गन्धनासामुखकक्षदेशा नपुंसकाः श्मश्रुविहीनवक्त्राः । सत्वास्तु यत्पुंस्त्वगुणेविहीना भवन्ति मन्दा बत दृष्कृतेन ॥ ३७॥ प्रियाणि कुर्वन्प्रवदन् हितानि ददंस्तथार्थानपि संश्रयांश्च । यद्वेष्यतां सर्वजनस्य याति तदाहुरार्या दुरितप्रभावम् ॥ ३८॥ नेच्छाफलाप्तिनं च इष्टसंपत्प्रियेवियोगोऽप्रियसंप्रयोगः । सर्वाधिकाराश्च फलैविहोना अपूण्यभाजां हि नृणां भवन्ति ॥ ३९॥ सामानRTH-मारिया होकर दूसरोंके घरोंमें सुलभ भोगोंकी आश्चर्यपूर्वक प्रशंसा ही करते हैं, प्राप्तिके लिए पुरुषार्थ नहीं करते हैं तथा अकिंचन होकर I अपनी हथेलियोंको ही पात्र बनाकर माँगते हुये एक देशसे दूसरे देशमें चक्कर काटते हैं ।। ३४ ।। वे रात-दिन ऐसे घोर अकल्याणकारी कार्योंको करते हैं जिनके फलस्वरूप उनके क्लेश और अनुताप बढ़ते ही जाते हैं, फलतः वे दिन-रात दुःखोंकी ज्वालासे जलते हैं, उनका चित्त खिन्न हो जाता है तथा वे अपने मनोरथोंको पूरा किये बिना ही मौतके घाट उतर आते हैं ॥ ३५ ॥ पाप कर्मोके चंगुल में फँसे विचारे पुण्यहीन पुरुष प्रायः (अधिकता) अन्धे और बहिरे होते हैं, शरीर भी उनका एंचकताना और कुबड़ा होता है, गूगे और नपुसक भी वही होते हैं । वे इतने मूर्ख होते हैं कि जिस गलत बातपर अड़ जायेंगे हजार समझानेपर भी उसे न छोडेंगे । ऐसा भी नहीं है कि उक्त दोष उनमें संगति आदिके कारण आते हों, वे तो उनमें जन्मसे ही होते हैं ॥३६।। लोगोंके मुख, नाक, काँख आदिसे दुर्गन्ध क्यों आती है, कितने ही पुरुष आकारसे मनुष्य होते हुए भी नपुसक क्यों होते हैं ? बहुतसे युवकोंके चेहरेपर डाढ़ी-मूछ क्यों नहीं आती है ? तथा आकृति आदिसे पुरुष होते हुये भी लोगोंमें पुरुषके समान साहस, वीर्य और विवेक क्यों नहीं होता है ? उत्तर एक ही है, यह सब भी कुकर्मोंका हो फल है ।। ३७ ॥ सवका उपकार करते हुए भी, सर्वसाधारणसे प्रिय वचन बोलते हुए भी, आवश्यकताके समय दूसरोंको धन और आश्रय देते हुए भी, जिस मनुष्यसे सारा संसार शत्रुता करता है और उसका अहित चाहता है इसे भी पूज्य आचार्य पूर्वकृत महाकुत्सित कर्मोका प्रभाव ही मानते हैं ॥३८॥ जिन लोगोंने प्रयत्नपूर्वक पुण्य नहीं कमाया है उन्हें अपनी इच्छाके अनुकूल सफलता नहीं मिलती है, उनको सम्पत्ति [१३७] १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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