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स्थितः क्वचिच्च क्वचिदेव नग्नः क्वचित्पुनः शूरगति प्रपन्नः । क्वचिच्च नीचः क्वचिदेव तुमः क्वचिज्जयं प्राप्य भृशं जहर्ष ॥४॥ इति गजरथवाजिपादभारैविपुलबलैः समदैश्चतुविधैस्तैः । उभयनृपयशोवसन्तभूतनिचिततया बभूव मिश्रयुद्धम् ॥ ८५ ॥ ललितपुरपतेनराधिपस्य प्रथितधियो मधुराधिपस्य राज्ञः । यवभवदनयोविशेषयुद्धं तदहमशेषमतस्तु संप्रवक्ष्ये ॥८६॥
सप्तदवः
सर्गः
इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते
मिश्रकयुद्धो नाम सप्तदशमः सर्गः ।
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पर घोड़ोंके अंगोंके ढेर हो गये थे, कहीं कहीं पर छिन्न मस्तक शरीर ( कबन्ध ) जोरोंसे नाच रहे थे । इन सब कारणोंसे समर॥ भूमिकी भीषणता चरमसीमा तक पहुँच गयी थी ।। ८३ ।।
कहीं पर लोग मूच्छित होकर शान्त पड़े थे, कहींपर भग्न शरीर लोगोंके ढेर थे, किसी अन्य स्थान पर लोग लगातार वीरगतिको प्राप्त हो रहे थे। कहींपर समरभूमि गहरी मालूल देती थी तो दूसरी ओर शवों आदिके ढेरसे पर्वत समान उन्नत । हो गयी थी, कहीं पर लोग विजय होनेके कारण आनन्द विभोर हो रहे थे ।। ८४ ॥ I इस प्रकार दोनों ओरसे उद्धत तथा मत्त हस्ति, अश्व, रथ तथा पदाति चारों प्रकारकी विशाल सेनाएँ मथुराधिप
और ललितेश्वरके यशरूपी शिरोभूषणके समान हो रही थीं। इनके अतिरिक्त घोर संघर्षके कारण वह युद्ध मिला हुआ-सा (अर्थात् । कौन जोत रहा है इस अनुमानके अयोग्य या समान ) प्रतीत होता था ॥ ८५ ॥
प्रजाओंको परमप्रिय नीतिपटु ललितपुरेश्वर तथा प्रसिद्ध तथा प्रख्यात कुबुद्धि मथुराधिप इन दोनोंके बीच जो विशेष वैयक्तिक संघर्ष हुआ था उसे मैं इसके आगे विस्तृत रूपसे कहता हूँ॥ ८६ ।।
चारों वर्गसमन्वित सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक
__ धर्मकथामें मिश्रकयुद्ध-नाम सप्तदश सर्ग समाप्त ।
[३२८]
२. [सप्तदशः]।
१. [ भग्नः]। Jain Education International
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