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________________ RROP बरानु चरितम् चतुर्दशः अथान्यदा श्रेणिगणप्रधानाः समन्त्र्ये वृद्धैरमुकूलवृत्तः । अभेत्य' पल्या सह सोपचारं कश्चिभटं कान्त तयेत्थमूचुः ॥ ७५ ॥ अस्मिन्पुरे ये वणिजः प्रधाना अनेककोट्यर्थविशेषवन्तः । त्वद्र्पविज्ञानगणान्समीक्ष्य प्रदातुमिच्छन्ति सूताः प्रतीच्छः ॥७६ ॥ अपेत भाग्यस्थिरसत्वसारो वने भ्रमंस्त्वां कथमप्यपश्यन् । तदेव पर्याप्तमितः किमु स्यादित्यूचिवान्सागरवृद्धये सः ॥ ७७॥ श्रेष्ठी पुनः सर्वमिदं तवैव निश्शङ्कितो भुक्ष्व दधत्स्व' पुत्र । यथेच्छसि त्वं तु तथा भजस्व मा मैव इत्थं वद इत्यवोचत् ॥ ७ ॥ सर्गः ERATOPATILLAG आदिको कश्चिद्भटको दिखाकर अपने आपको कृतकृत्य माना था। तथा अपने घरमें कुटुम्बियोंके साथ उनके बीच में रहकर सुखसे जीवन व्यतीत कर रहा था ।। ७४ ।। नतन विवाह प्रस्ताव इस प्रकार पर्याप्त समय बीत जानेपर एक दिन नगरकी श्रेणियों और गणोंके प्रधान सेठ सागरवृद्धिने शास्त्रके अनुकूल संयमी तथा विचारक अपने समवयस्क वृद्धोंसे मत विनिमय करके अपनी धर्मपत्नीके साथ कश्चिद्भटके गृहमें गया था । आवश्यक शिष्टाचारके बाद उन्होंने कश्चिद्भटके सामने अत्यन्त सुन्दर प्रकारसे यह प्रस्ताव रखा था ॥ ७५ ॥ 'इस नगरमें अनेक ऐसे प्रमख व्यवसायी हैं जिनकी सम्पत्ति अनेक करोड़ोंसे अधिक ही नहीं है, अपितु असाधारण है। तुम्हारे स्वास्थ्य, सौन्दर्य, सुशिक्षा तथा सदाचार आदि गुणोंको देखकर वे सब अपनी सुशील संस्कृत तथा स्वस्थ कन्याओको । तुमसे ब्याहनेके लिए उत्सुक हैं । हमारा आग्रह है कि वत्स ! तुम भी स्वीकार कर लो' ।। ७६ ।। संकोच तथा संयम 'जब मेरे पूर्व जन्मोंमें अजित भाग्यने मुझे छोड़ दिया था, मेरी सम्पत्ति और विभव नष्ट हो चुके थे तथा शारीरिक बलकी नींव भी हिल चुकी थी, इधर-उधर टक्कर मारता जंगल में फिर रहा था तब किसी पुण्यकर्मके उदयसे आपके साथ भेंट हो गयी, मेरे लिए इतना ही अप्रत्याशितसे भी अधिक है। इस सबसे क्या हो सकता है।' इतना ही उत्तर युवराजने सेठजी 11 को दिया था ।। ७७ ॥ यह सुनकर सेठने पुनः आग्रह करके कहा था 'हे पुत्र हमारे पास जो कुछ भी है वह सब तुम्हारा ही है, संकोच छोड़१. म अभीत्य, [ अम्येत्य ] । म कान्त नयेत्थ । ३. [ प्रतीच्छ]। ४.क अपेत्य भाग', [ भाग्योऽस्थिर']। । ५. [ अपश्यम् । ६. म तदत्स्व । For Privale & Personal Use Only [२५२ Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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