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________________ बराज चरितम् इत्यु चिषि श्रेष्ठिनि सोऽभ्यवोचद्यथेष्टचेष्टः सह शिष्टगोष्ठया। वसाम्यथैवं यदि रोचते ते कि दारकार्येण विमुच्चयामि ॥ ७९ ॥ स तस्य चित्तानुगतं विदित्वा तथा तथास्तामिति संप्रधार्य । प्रियाणि सार्थाधिपतिनिगद्य स्वधर्मकर्माभिरतो बभूव ॥ ८॥ अथान्यदोद्यानवनं प्रयाता वणिक्सुताः शिष्टघटाश्च सर्वाः । संमन्य कश्चिद्भुटमादरेण श्रेष्ठी भवेत्यूचरुदारवत्तम् ॥११॥ नरेन्द्रपुत्रोऽहमभूवमादौ युवावनीन्द्रस्तु युवत्वकाले । प्रवर्धमानो वणिजां प्रभत्वं पर्याप्तमेतावदिहात्मवदभ्यः ॥ २॥ PROPERTRAITADA न्यान्यायालयानमा कर इसका भोग करो, जिसे चाहो उसे दो तथा जिस प्रकारकी तुम्हारी अभिलाषा हो उसी तरहसे इसका उपयोग करो। किन्तु जैसा तुमने अभी कहा है वैसा मत कहो' ।। ७८ ।। पिता तुल्य सेठ जीके द्वारा उक्त वचन कहे जानेपर विनम्रतापूर्वक कुमारने कहा था 'मनचाहे खेल, कूद आदि कार्य । करता हूँ, शिक्षित शिष्ट पुरुषोंके साथ ज्ञानगोष्ठी करता हुआ आनन्दसे ही समय काट रहा हूँ। यदि मेरे जीवनका यह ढंग ही काफी रोचक है और मैं प्रसन्न हूँ तो फिर ब्याह करनेसे क्या लाभ है ? इससे मुझे छुट्टी दीजिये' ।। ७९ ॥ इस उत्तरके आधारपर सेठ कश्चिद्भटके मनकी बातको समझ सका था अतएव उसने मन ही मन निर्णय किया कि 'जैसा चल रहा है उसी प्रकार चलने दिया जाय । फलतः सार्थपात इधर-उधरको अनेक मनोरंजक बातें करके लौट आया था और अपने धर्म तथा कर्तव्य कर्मों के पालनमें सावधानीसे लग गया था ।। ८० ।। राजा सेठ हुआ इस घटनाके कुछ दिन बाद एक दिन नगरके सब ही श्रीमान् वणिकों की लड़कियाँ वनविहारके लिए उद्यानमें गयी थीं। वहाँपर उन्होंने बड़े आदर और भक्तिके साथ कश्चिद्भटको आमंत्रित किया था। जब वह उनके पास पहुंचा तो वे सब उत्तम कलशोंको लेकर उसके पास खड़ी हो गयी थीं और उससे सानुनय निवेदन करने लगी थीं कि वह भी सेठ बनना स्वीकार कर ले ॥ ८१॥ यह सुनते ही उसके मनमें विचारोंका ज्वार आ गया था 'जीवनके प्रभातमें सम्मान्य राजपुत्र था, धीरे-धीरे बढकर । किशोर अवस्थाको लांघकर ज्योंही युवा अवस्थामें पदार्पण किया तो युवराज पदपर अभिषेक हुआ था, तथा धीरे-धीरे विकासको करते हुए आज वणिकोंके प्रभुत्वको प्राप्त हो रहा है, क्या किसी मनस्वीके लिये इतना ही पर्याप्त है ।। ८२ ।। १. म इत्याचिषि । २. [ विवञ्चयामि ] | PALEGALI २३] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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