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________________ वराङ्ग चरितम् भवनवासी- चार देव योनियोंमें प्रथम योनि । यतः ये भवनों में रहते हैं, व्यन्तर ज्योतिषियोंके समान इधर-उधर घूमते नहीं हैं अतः इन्हें भवनवासी कहते हैं। इनके दस भेद हैं-असुर कुमार, विद्युतकु. सुपर्णकु. नागकु. अग्निकु. वातकु. स्तनितकु. उदधिकु. दपिकु. तथा दिक्कुमार। इन सबका वेष-भूषा, शस्त्र, यान - वाहन, क्रीड़ा, आदि कुमारोंके समान होते हैं अतः इन्हें कुमार कहते हैं । अधोलोकी प्रथम पृथ्वी रत्नप्रभाके पङ्क-बहुलभाग में असुरकुमार रहते हैं तथा खर भागमें शेष नागकुमार आदि नौ भवनवासी देवोंके विशाल भवन हैं । इनके इन्द्रोंकी संख्या ४० है । इनमें असुरकुमारोंकी उत्कृष्ट आयु सागर प्रमाण है, नागकुमारोंकी तीन पल्य है, सुपर्ण-कुमारों वर्ष साढ़े तीन, द्वीपकुमारोंकी दो तथा शेष छह कुमारोंकी आधा पल्य है । तथा जघन्य आयु दश सहस्र वर्ष है । व्यन्तर- देवोंका दूसरा मुख्य भेद । विविध द्वीप देशोंमें रहनेके कारण इनको व्यन्तर देव कहते हैं । किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत तथा पिशाचके भेदसे ये आठ प्रकारके हैं । यद्यपि जम्बूद्वीपसे चलकर असंख्य द्वीप समुद्रोंको पार कर जानेके बाद इसी रत्नप्रभा पृथ्वीके खरभाग पर ७ प्रकारके व्यन्तरोंका तथा पङ्कबहुल भागमें राक्षसोंका मुख्य निवास है तथापि ये मध्य लोकमें यत्र-तत्र - सर्वत्र घूमते रहते हैं । इनमें १६ इन्द्र होते हैं । इनकी उत्कृष्ट आयु एक पल्यसे अधिक है तथा जघन्य आयु दस हजार वर्ष है । अंध- पंगु - शास्त्रोंमें चरित्रवान् श्रद्धावान् व्यक्तियोंकी तुलना क्रमशः अंध और पंगुसे की है । किसी स्थान पर अंधा और लंगड़ा अलग अलग रहते हों और यदि दैवात् उस स्थानमें आग लग जाय तो वे दोनों अलग होनेके कारण जल्द भस्म हो जाते हैं । किन्तु यदि दोनों एक साथ हों तो अंधा लंगड़ेको अपनी पीठ पर ले लेता है तथा लंगड़ा आँखोंसे देख सकनेके कारण उसे रास्ता बताता जाता है । फलतः दोनों बाहर निकल जाते हैं। यही हालत चरित्र और श्रद्धा (दर्शन) की है यदि ये दोनों मिल जांय तो मोक्ष होना अनिवार्य है । अन्यथा चरित्रहीन ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञानहीन चरित्र भी विडम्बना है । जैसे कि देखता हुआ भी पंगु जलता है तथा दौड़ता हुआ भी अन्धा नष्ट होता है । चतुर्थ सर्ग कृमि - इन्द्रियोंका वर्णन करते हुए बताया है कि पृथ्वी आदिके एक इन्द्री होती है । इसके आगे कृमिके एक अधिक स्पर्शन अर्थात् स्पर्शन और रसना इन्द्रिय होती है । अर्थात् यह कीडे तीन इन्द्रिय चींटीकी जातिसे नीची जातिके हैं। रेशमके कीड़ोंको भी कृमि कहा है। सर्वार्थसिद्धि - सोलह स्वर्गीक ऊपर नौ ग्रैवेयक और अनुदिश हैं। इनके ऊपर विजय आदि पंचोत्तरोंका पटल है । इस पञ्चोत्तर पटलके मध्यके विमानका नाम सर्वार्थसिद्धि है । यहां उत्पन्न होनेवाले अहमिन्द्र मर कर नियमसे मनुष्यभव में जाते हैं और वहांसे मोक्षको प्राप्त करते हैं । इनकी आयु ३३ सागर होती है तथा शरीरकी ऊँचाई १ हाथ प्रमाण होती है । ईश्वरेच्छा - वैदिक मतानुयायी ईश्वरको जगत्का कर्ता मानते हैं। किन्तु जैनमत अपने कर्मोंको ही अपना कर्त्ता मानता है। इस सहज तथ्यकी सिद्धिके लिए जब ईश्वरके जगत्कर्तृत्व में दोष दिखाये गये तो वैदिकोंने ईश्वरकी इच्छाको संसारका कर्त्ता माना अर्थात् कर्म तो प्राणी ही करता है किन्तु ईश्वरकी इच्छासे करता है। लेकिन यदि ईश्वरमें इच्छा शेष है तो भी वह संसारियोके समान रागद्वेषी हो जायगा परमात्मा या सिद्ध नहीं रहेगा । मिथ्यादर्शन- चौथे कर्म मोहनीयके प्रथम भेद दर्शन मोहनीयका प्रथम भेद । इसके उदयसे जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्गसे विमुख होता है अर्थात् न जीवादि तत्त्वोंकी श्रद्धा करता है, और न उसे अपने हित-अहितकी पहिचान होती है । इसके दो भेद हैं 9 - नैसर्गिक या अग्रहीत जो अनादि कालसे चला आया है, २-ग्रहीत, जो दूसरोंको देखने या दूसरोंके उपदेश से असत्य श्रद्धा हो गयी हो । ग्रहीत मिथ्यात्व भी १८० क्रियावाद, ८४ अक्रियावाद, ६७ अज्ञानवाद तथा ३२ विनयवादके भेद से ३६३ प्रकारका होता है । मिथ्यादर्शन को For Private & Personal Use Only Jain Education International [ ६६६ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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