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अबुधहृदयवञ्चनानिमित्तं परिपठितं शठवादिभिद्विजैर्यत् । पुनरपि नपतिविशालबुद्धिः कथयितुमारभते स्म वेदगुह्यम् ॥ ७७ ॥
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इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिते
परवादिविघातको नाम चतुर्विंशतितमः सर्गः ।
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चतुर्विशः सर्गः
चरितम्
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मिथ्या-दृष्टि मतप्रवर्तकों द्वारा चलाये गये कुमार्गोंके कुतर्कोका खंडन किया था, और सप्त नय तथा सप्त भंगयुक्त परिपूर्ण ज्ञानके साधक मार्गको समझाया था। यह सब उपदेश उस समय उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट तथा आशुबोध शैलीमें किया था ।। ७६ ।।
जो पुरुष भोले तथा अज्ञानी हैं उनके सरल हृदयको ठगनेकी अभिलाषासे स्वार्थी दुष्ट तथा हठी विद्यावृत्तिप्रधान द्विजोंने जो कुछ भी वेद-ज्ञानमार्गके नामपर अव्यवस्थित उपदेश दिये हैं, उस समस्त ज्ञानके रहस्यको स्पष्ट कर देनेके ही लिए उदार विचार, सन्मति तथा सम्यक्दृष्टि सम्राटने फिरसे व्याख्यान देना प्रारम्भ किया था ।। ७७ ।।
चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें
परवादिघातक नाम चतुर्विशतितम् सर्ग समाप्त ।
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KE न्यायमायामासारामचा
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