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________________ चामान्माke इह प्रकुर्वन्ति नरेश्वराणां दिने दिने स्वस्त्ययनक्रियाश्च । शान्ति प्रघोष्यन्ति धनाशयैव क्षान्तिक्षयं तेऽप्यनवाप्तकामाः ॥ ३६॥ कर्माणि यान्यत्र हि वैदिकानि रिपुप्रणाशाय सुखप्रदानि । . पंचविंशः आयुर्बलारोग्यवपुःकराणि दृष्टानि वैयर्थ्यमुपागतानि ॥ ३७॥ सर्गः समन्त्रपूताम्बहताग्निसाक्ष्यः' पल्यो नियन्ते च परैभ्रियन्ते। कन्याश्रितव्याधिविशीर्णदेहा वैधव्यमिच्छन्त्यथवा चिरेण ॥ ३८ ॥ विपत्तिमृच्छन्ति च गर्भ एव केचित्प्रसूतावपि बालभावे । दारिद्यमन्ये विकलेन्द्रियत्वं द्विजात्मजाश्चेदिह को विशेषः ॥ ३९ ॥ इतना ही नहीं वे तो यह भी कहते हैं कि ब्राह्मणका वाक्य कभी निष्फल होता ही नहीं है। ऐसे अमोघ वाक्य ब्राह्मण । लोग न जाने कितने समयसे प्रतिदिन राजाओंको क्षेम, कुशल तथा वृद्धि, आदिके लिए प्रतिदिन स्वस्ति-वाचन, अयन, क्रिया आदि अनुष्ठान करते आ रहे हैं, और इसी व्याजसे राजाओंसे धन कमाते हैं । धनको आशा हो उन्हें प्रतिदिन शान्तिके अनुष्ठान करनेको बाध्य करती है। किन्तु परिणाम तो सब हो जानते हैं। उन दोनोंकी ही अभिलाषाएँ पूर्ण नहीं होती हैं तथा उपद्रवोंमें पड़कर उनका क्षय हो जाता है ॥ ३६ ।। यज्ञविशेष वेदों में कितने ही यज्ञ-याग ऐसे हैं जिनके अनुष्ठानसे शत्रओंका नाश हो जाता है। कुछ दूसरे ऐसे बताये हैं जिनके करनेसे स्वर्ग आदि सुख प्राप्त होते हैं, ऐसे अनुष्ठानोंकी भी कमी नहीं है जिनके फलस्वरूप आयु बढ़ जाती है, रोग नष्ट हो A जाता है अथवा होता ही नहीं है, बलको असीम वृद्धि होती है, शरोर सुन्दर तथा आकर्षक हो जाता है ।। ३७ ।। किन्तु अधिकांश प्रयोगोंमें, ये सब हो निष्फल सिद्ध हुए हैं। संसारमें जतने भी व्याह होते हैं वे उस होमाग्निको साक्षी मानकर किये जाते हैं जिसमें उत्कृष्ट मंत्रोंके सांगोपांग उच्चारण तथा विस्तृत पाठके द्वारा पवित्र की गयी हवन सामग्री, जल, आदिका उपयोग होता है। किन्तु वे पल्लियाँ असमयमें ही मर जाती हैं अथवा दूसरे उनको ले भागते हैं। दूसरा पक्ष ( कन्याएँ) भी अनिष्टसे अछूता नहीं रहता है-कभी-कभी लड़कियोंको दारुण रोग हो जाते हैं जो उनके सुकुमार सुन्दर शरीरको जर्जर कर देते हैं अथवा विचारी असमयमें विधवा हो जाती हैं ।। ३८ ॥ और यौवन काल आदि लम्बे समयको दुःख भर कर बिताती हैं । दूसरोंकी तो बात ही क्या है ? तथाकथित सर्वशक्तिमान् ब्राह्मणोंको कितनी ही सन्ताने गर्भमें ही मर जाती हैं। दूसरे कितने ही जन्म लेते ही रोगग्रस्त होते हैं अथवा मर जाते।। १. साख्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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